#VIJAYMANOHARTIWARI
मध्यप्रदेश में व्यापमं महाघोटाला सरकार, समाज, शिक्षा के कारोबारियों और दलालों की संगठित अपराध श्रृंखला का दूसरा नाम है। एक ऐसा सामूहिक कुकर्म, जिसने हजारों काबिल युवाओं के सपनों की लगातार हत्या की। एक पीढ़ी बरबाद कर दी। इस पाप में हर वर्ण और हर वर्ग के ऊंची पसंद वाले ऊंचे लोग बढ़-चढ़कर भागीदार थे। बीते पंद्रह सालों में मेडिकल माफिया की ताकत उनके तेजी से फैले कारोबारी साम्राज्य में साफ नजर आई थी। किराना बेचते-बेचते या एक मामूली क्लिनिक से शुरुआत करके मेडिकल और डेंटल कॉलेज-यूनिवर्सिटी की चकाचौंध कर देने वाली अरबों की मिल्कियत खड़ी करने वालों को शहर और सियासत ने सदा सलाम किया था। उनकी आवाज में असर था। उन्हें नजरअंदाज करना नामुमकिन था। वे नए आर्थिक दौर के विजेता थे!
देश के काबिल विद्यार्थी पचास साल से #reservation की पक्षपातपूर्ण अमानवीय रीति-नीति के बेकसूर शिकार हैं। व्यापमं की वजह से निश्चित ही ऐसे हजारों होनहार बच्चे चंद अंकों के अंतर से पीएमटी में पीछे रहे होंगे। अब तक उन्हें बखूबी अंदाजा हो गया होगा कि कौन सफेदपोश चील-गिद्ध उनके हक पर हमले बोल रहे थे। अंधेरगर्दी भी कैसी? एमबीबीएस की एक सीट 80 लाख तक में बिकी और प्रीपीजी की बोली डेढ़ करोड़ तक गई। जब एक्टर बिकते हैं, खिलाड़ियों की बोलियां लगती हैं और नेता-अफसर ठेलों पर हर माल दो रुपए की तरह सजे हैं तो मेडिकल की सीटों के सौदे में क्या खराब था?
पइसा फैंको, तमाशा देखो। इस तमाशे के ताकतवर खिलाड़ियों को एक पल के लिए भी यह सोचने की जरूरत नहीं थी कि वे आटे में नमक नहीं, पूरा नमक ही नमक चला रहे हैं। उन्हें गरीब और निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के मेहनती और प्रतिभाशाली बच्चों की आंखों में पंख खोल रहे मासूम ख्वाबों का जरा भी ख्याल नहीं था। ये सारे खिलाड़ी खुद बेहद मामूली हैसियत से निकलकर इस स्तर पर आए थे, जहां वे अफसर, नेता, डॉक्टर और दलालों के गिराेह में माफिया राज चलाते हुए देखे गए।
मोटी रकम मुंह पर मारकर मेडिकल कॉलेजों में दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों ने अपनी कामयाबी के जश्न जरूर मनाए होंगे। अब वे डॉक्टर बनकर निकलने वाले थे। सिलेक्शन के बाद मालदार घरानों में उनके रिश्ते तय थे। उन लड़की वालों को इससे कोई मतलब नहीं था कि दामाद के गले में डॉक्टरी किस कीमत पर और किस-किसकी कीमत पर टंगी है। वे भी नौकरी और बिजनेस में ऐसे ही काले-पीले तरीकों से लुटाने लायक बेहिसाब खजाने भरे बैठे थे। आने वाला कल इन सबके लिए सुनहरा था। मगर असलियत उजागर होते ही पुलिस और अदालतें दृश्य में आ गईं। जेलों में चहलपहल बढ़ गई। महफिल का जायका बिगड़ गया। रायता फैल गया!
खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे। जिनके पास 80 लाख चुकाने की हैसियत नहीं थी, वे तब मन मसोसकर ड्राइंगरूम में सिस्टम को गाली देते हुए चुप बैठ गए थे। सबके मन में यह कसक जरूर रही कि काश हमारे पास भी रोकड़े होते! हमने भी कुछ कमाया होता। यह तबका बेईमानी के अवसर न मिलने भर से ईमानदार होने का मुखौटा लगाए था। मगर जब सीटें खरीदने-बेचने वाले जेल गए तो कलेजे में सबसे ज्यादा ठंडक यहीं थी। एक सुर में आह भरकर सबने कहा-पापियों का अंजाम यही होना था!
बरसों पहले पढ़ी लियो टॉल्सटॉय की एक मशहूर कहानी याद आ रही है-हाऊ मच लैंड द मैन नीड। एक आदमी को आखिर कितनी जमीन चाहिए? कहानी यूं है कि एक इंसान से कहा जाता है कि वह दौड़ना शुरू करे और सूरज ढलने के पहले जहां तक पहुंचेगा, उतनी जमीन उसकी। वह पूरी ताकत से दौड़ना शुरू करता है। दोपहर तक बिना रुके, बिना ठहरे भागता है। सूरज सिर पर चढ़ आता है। वह भी थककर चूर है। मगर और जमीन की लालसा में सूरज के डूबने तक भागता ही जाता है। इधर सूरज डूबता है और वह आदमी गश खाकर गिरकर मर जाता है। कहानी का सार है कि जिस दो गज जमीन पर वह गिरा, उसे उतनी ही जमीन जरूरी थी मगर हाय, लालच ने उसे पागलों की तरह दौड़ाया!
व्यापमं के सारे गुनहगार इंदौर और भोपाल के बड़े और नामी अस्पतालों के मालिक और सरकारी अफसर बेहद साधारण परिवारों से ही आए थे। इस घनघोर घोटाले में कदम रखने के पहले वे अपने करिअर के दस-पंद्रह साल बिता चुके थे। इस दौरान उन्होंने अपने शानदार घर-फॉर्म हाऊस बना लिए थे। मामूली से क्लिनिक छोटे नर्सिंगहोम या अस्पताल में बदल चुके थे। #medicaleducation और व्यापमं में तिकड़मों से डटे अफसरों ने दो-चार प्रमोशन डकार लिए थे। महंगी गाड़ियां और बड़े क्लबों की मेंबरशिप ली जा चुकी थीं। दवा कंपनियों से डॉक्टरों की सदाबहार साठगांठ ने भी जिंदगी की रौनक में इजाफा किया था। महंगे उपहार और साल में दो-एक विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हो गया था। रईसी ठाटबाट में सबके बच्चे शानदार स्कूल-कॉलेजों में पढ़ ही रहे थे। मगर इस हैसियत मंे तो कई कम्बख्त हैं। शहर और सूबे में अपना नाम सबसे बड़ा ही होना चाहिए। एक ब्रांड की तरह-गोयनका, भंडारी, विजयवर्गीय, चौकसे, भदौरिया। कितने भारी-भरकम नाम! जैसे-सहारा, माल्या...। तो ब्रांड बनने के बड़े हसीन सपने के साथ व्यापमं वीरों की एक नई दौड़ शुरू हुई थी...
टॉल्सटाॅय की कहानी यहां एक अलग मोड़ लेती है-
बेइंतहा लालच में व्यापमं की कहानी के किरदार सूरज ढलने के बाद भी गश खाकर गिरे नहीं। रात भर दौड़ते रहे। सिस्टम के अंधेरे रास्तों की हर बड़ी शाख पर बैठे उल्लुओं ने इनकी महादौड़ के दर्शन लाभ लिए। दक्षिणा का आदान-प्रदान हुआ। पसीने की एक बूंद पेशानी पर लाए बगैर वे बिना हांफे दौड़ते गए। सुबह सूरज को ही इन्हें देखकर गश आ गया। सचमुच हैरान था सूरज। उसे ताज्जुब तो यह था कि अब ये अकेले नहीं थे। इनके साथ कई मंत्री-मंत्राणी, शर्मा, शुक्ला, त्रिवेदी, महेंद्रा, अरोरा, शिवहरे और अनगिनत एनआरआई भी जाने कहां-कहां से नोटशीट, बैलेंसशीट, मार्कशीट, काउंसलिंग चार्ट और हार्ड डिस्कें लिए दौड़ते दिखे। बेहिसाब कैश रास्ते में बिखरा पड़ा था। हर साल पीएमटी के बाद ताकतवरों का एक नया झुंड इन लुटेरों में शामिल हुआ था। पटना, लखनऊ और कानपुर के धावक भी आ धमके थे। समाज में एक शक्तिशाली काफिला आकार ले चुका था, जहां सिर्फ पैसे और पैसे वालों की ही चलती थी!
लालच की इस दौड़ का आखिरी छोर कहीं नहीं था। मगर व्हिसल ब्लोअर नाम की एक नई जमात ने शोर मचा दिया। तभी बीच दौड़ में कहीं से बिन बुलाई #STF प्रकट हुई। थोड़ी देर में लगा कि वह भी दौड़ में शामिल है या दौड़ने वालों को रास्ता दे रही है। एसटीएफ ने कुछ दौड़ाकों को पलक झपकते ही इधर-उधर किया। दस्तावेज-हार्डडिस्क को जांच नाम की जादू की गंदी पोटली में उतारा। पता नहीं कहां से तभी #CBI आ धमकी। एसटीएफ सकपकाई। जादू की पोटली सीबीआई ने छीन ली। कुछ धावकों को धर लिया। कुछ जेल गए। कुछ फरार हुए। मगर वे विजेता थे। अब तक वे चमचमाते हुए नामी ब्रांड बन चुके थे-#chirayu, #arvindo, #LN, #peoples, #index, #amaltas, #ardigardi...।
29 नवंबर 2017
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मध्यप्रदेश में व्यापमं महाघोटाला सरकार, समाज, शिक्षा के कारोबारियों और दलालों की संगठित अपराध श्रृंखला का दूसरा नाम है। एक ऐसा सामूहिक कुकर्म, जिसने हजारों काबिल युवाओं के सपनों की लगातार हत्या की। एक पीढ़ी बरबाद कर दी। इस पाप में हर वर्ण और हर वर्ग के ऊंची पसंद वाले ऊंचे लोग बढ़-चढ़कर भागीदार थे। बीते पंद्रह सालों में मेडिकल माफिया की ताकत उनके तेजी से फैले कारोबारी साम्राज्य में साफ नजर आई थी। किराना बेचते-बेचते या एक मामूली क्लिनिक से शुरुआत करके मेडिकल और डेंटल कॉलेज-यूनिवर्सिटी की चकाचौंध कर देने वाली अरबों की मिल्कियत खड़ी करने वालों को शहर और सियासत ने सदा सलाम किया था। उनकी आवाज में असर था। उन्हें नजरअंदाज करना नामुमकिन था। वे नए आर्थिक दौर के विजेता थे!
देश के काबिल विद्यार्थी पचास साल से #reservation की पक्षपातपूर्ण अमानवीय रीति-नीति के बेकसूर शिकार हैं। व्यापमं की वजह से निश्चित ही ऐसे हजारों होनहार बच्चे चंद अंकों के अंतर से पीएमटी में पीछे रहे होंगे। अब तक उन्हें बखूबी अंदाजा हो गया होगा कि कौन सफेदपोश चील-गिद्ध उनके हक पर हमले बोल रहे थे। अंधेरगर्दी भी कैसी? एमबीबीएस की एक सीट 80 लाख तक में बिकी और प्रीपीजी की बोली डेढ़ करोड़ तक गई। जब एक्टर बिकते हैं, खिलाड़ियों की बोलियां लगती हैं और नेता-अफसर ठेलों पर हर माल दो रुपए की तरह सजे हैं तो मेडिकल की सीटों के सौदे में क्या खराब था?
पइसा फैंको, तमाशा देखो। इस तमाशे के ताकतवर खिलाड़ियों को एक पल के लिए भी यह सोचने की जरूरत नहीं थी कि वे आटे में नमक नहीं, पूरा नमक ही नमक चला रहे हैं। उन्हें गरीब और निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के मेहनती और प्रतिभाशाली बच्चों की आंखों में पंख खोल रहे मासूम ख्वाबों का जरा भी ख्याल नहीं था। ये सारे खिलाड़ी खुद बेहद मामूली हैसियत से निकलकर इस स्तर पर आए थे, जहां वे अफसर, नेता, डॉक्टर और दलालों के गिराेह में माफिया राज चलाते हुए देखे गए।
मोटी रकम मुंह पर मारकर मेडिकल कॉलेजों में दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों ने अपनी कामयाबी के जश्न जरूर मनाए होंगे। अब वे डॉक्टर बनकर निकलने वाले थे। सिलेक्शन के बाद मालदार घरानों में उनके रिश्ते तय थे। उन लड़की वालों को इससे कोई मतलब नहीं था कि दामाद के गले में डॉक्टरी किस कीमत पर और किस-किसकी कीमत पर टंगी है। वे भी नौकरी और बिजनेस में ऐसे ही काले-पीले तरीकों से लुटाने लायक बेहिसाब खजाने भरे बैठे थे। आने वाला कल इन सबके लिए सुनहरा था। मगर असलियत उजागर होते ही पुलिस और अदालतें दृश्य में आ गईं। जेलों में चहलपहल बढ़ गई। महफिल का जायका बिगड़ गया। रायता फैल गया!
खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे। जिनके पास 80 लाख चुकाने की हैसियत नहीं थी, वे तब मन मसोसकर ड्राइंगरूम में सिस्टम को गाली देते हुए चुप बैठ गए थे। सबके मन में यह कसक जरूर रही कि काश हमारे पास भी रोकड़े होते! हमने भी कुछ कमाया होता। यह तबका बेईमानी के अवसर न मिलने भर से ईमानदार होने का मुखौटा लगाए था। मगर जब सीटें खरीदने-बेचने वाले जेल गए तो कलेजे में सबसे ज्यादा ठंडक यहीं थी। एक सुर में आह भरकर सबने कहा-पापियों का अंजाम यही होना था!
बरसों पहले पढ़ी लियो टॉल्सटॉय की एक मशहूर कहानी याद आ रही है-हाऊ मच लैंड द मैन नीड। एक आदमी को आखिर कितनी जमीन चाहिए? कहानी यूं है कि एक इंसान से कहा जाता है कि वह दौड़ना शुरू करे और सूरज ढलने के पहले जहां तक पहुंचेगा, उतनी जमीन उसकी। वह पूरी ताकत से दौड़ना शुरू करता है। दोपहर तक बिना रुके, बिना ठहरे भागता है। सूरज सिर पर चढ़ आता है। वह भी थककर चूर है। मगर और जमीन की लालसा में सूरज के डूबने तक भागता ही जाता है। इधर सूरज डूबता है और वह आदमी गश खाकर गिरकर मर जाता है। कहानी का सार है कि जिस दो गज जमीन पर वह गिरा, उसे उतनी ही जमीन जरूरी थी मगर हाय, लालच ने उसे पागलों की तरह दौड़ाया!
व्यापमं के सारे गुनहगार इंदौर और भोपाल के बड़े और नामी अस्पतालों के मालिक और सरकारी अफसर बेहद साधारण परिवारों से ही आए थे। इस घनघोर घोटाले में कदम रखने के पहले वे अपने करिअर के दस-पंद्रह साल बिता चुके थे। इस दौरान उन्होंने अपने शानदार घर-फॉर्म हाऊस बना लिए थे। मामूली से क्लिनिक छोटे नर्सिंगहोम या अस्पताल में बदल चुके थे। #medicaleducation और व्यापमं में तिकड़मों से डटे अफसरों ने दो-चार प्रमोशन डकार लिए थे। महंगी गाड़ियां और बड़े क्लबों की मेंबरशिप ली जा चुकी थीं। दवा कंपनियों से डॉक्टरों की सदाबहार साठगांठ ने भी जिंदगी की रौनक में इजाफा किया था। महंगे उपहार और साल में दो-एक विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हो गया था। रईसी ठाटबाट में सबके बच्चे शानदार स्कूल-कॉलेजों में पढ़ ही रहे थे। मगर इस हैसियत मंे तो कई कम्बख्त हैं। शहर और सूबे में अपना नाम सबसे बड़ा ही होना चाहिए। एक ब्रांड की तरह-गोयनका, भंडारी, विजयवर्गीय, चौकसे, भदौरिया। कितने भारी-भरकम नाम! जैसे-सहारा, माल्या...। तो ब्रांड बनने के बड़े हसीन सपने के साथ व्यापमं वीरों की एक नई दौड़ शुरू हुई थी...
टॉल्सटाॅय की कहानी यहां एक अलग मोड़ लेती है-
बेइंतहा लालच में व्यापमं की कहानी के किरदार सूरज ढलने के बाद भी गश खाकर गिरे नहीं। रात भर दौड़ते रहे। सिस्टम के अंधेरे रास्तों की हर बड़ी शाख पर बैठे उल्लुओं ने इनकी महादौड़ के दर्शन लाभ लिए। दक्षिणा का आदान-प्रदान हुआ। पसीने की एक बूंद पेशानी पर लाए बगैर वे बिना हांफे दौड़ते गए। सुबह सूरज को ही इन्हें देखकर गश आ गया। सचमुच हैरान था सूरज। उसे ताज्जुब तो यह था कि अब ये अकेले नहीं थे। इनके साथ कई मंत्री-मंत्राणी, शर्मा, शुक्ला, त्रिवेदी, महेंद्रा, अरोरा, शिवहरे और अनगिनत एनआरआई भी जाने कहां-कहां से नोटशीट, बैलेंसशीट, मार्कशीट, काउंसलिंग चार्ट और हार्ड डिस्कें लिए दौड़ते दिखे। बेहिसाब कैश रास्ते में बिखरा पड़ा था। हर साल पीएमटी के बाद ताकतवरों का एक नया झुंड इन लुटेरों में शामिल हुआ था। पटना, लखनऊ और कानपुर के धावक भी आ धमके थे। समाज में एक शक्तिशाली काफिला आकार ले चुका था, जहां सिर्फ पैसे और पैसे वालों की ही चलती थी!
लालच की इस दौड़ का आखिरी छोर कहीं नहीं था। मगर व्हिसल ब्लोअर नाम की एक नई जमात ने शोर मचा दिया। तभी बीच दौड़ में कहीं से बिन बुलाई #STF प्रकट हुई। थोड़ी देर में लगा कि वह भी दौड़ में शामिल है या दौड़ने वालों को रास्ता दे रही है। एसटीएफ ने कुछ दौड़ाकों को पलक झपकते ही इधर-उधर किया। दस्तावेज-हार्डडिस्क को जांच नाम की जादू की गंदी पोटली में उतारा। पता नहीं कहां से तभी #CBI आ धमकी। एसटीएफ सकपकाई। जादू की पोटली सीबीआई ने छीन ली। कुछ धावकों को धर लिया। कुछ जेल गए। कुछ फरार हुए। मगर वे विजेता थे। अब तक वे चमचमाते हुए नामी ब्रांड बन चुके थे-#chirayu, #arvindo, #LN, #peoples, #index, #amaltas, #ardigardi...।
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