Sunday 25 March 2018

राजा भोज के बहाने

#VIJAYMANOHARTIWARI
साल 2000 की बात है। एक मार्च का दिन था। मैं उन दिनों इंदौर में था। धार की भोजशाला के लिए हुए आंदोलन का समय था। हिंदू जागरण मंच ने भोजशाला को लेकर एक आंदोलन शुरू किया था। नईदुनिया के लिए इसकी कवरेज के बहाने मुझे राजा भोज के व्यक्तित्व में झांकने का मौका मिला। मुझे लगा कि इंदौर में बैठकर आंदोलन की टेबल कवरेज की बजाए सबसे पहले जाकर भोजशाला के दर्शन करने चाहिए।
उस दिन मैं धार जा पहुंचा। भोजशाला तब पुलिस के कड़े पहरे में थी। पुलिस के जवान ने मुझे प्राचीन पत्थरों की चारदीवारी से घिरी उस इमारत के शानदार दरवाजे पर अंदर जाने से रोका। मैंने वजह पूछी तो जवाब गजब का मिला। वह बोला-इजाजत नहीं है। मैंने अपना प्रेस का परिचय दिया और इतिहास के प्रति अपनी दिलचस्पी जाहिर करते हुए गुजारिश की कि दस मिनट के लिए भीतर जाकर आने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। वह बोला-मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि मजहब वाले आपत्ति लेते हैं।
मजहब वाले मतलब मुस्लिम। सामने ही कब्रों के आसपास कुछ झुग्गियों में स्थानीय मुसलमान परिवार रहते थे। हालांकि मुझे भोजशाला के दरवाजे तक जाने में उनमें से किसी ने नहीं रोका था। भोजशाला में तब हिंदुओं के लिए साल में एक ही दिन जाने की इजाजत थी-वसंत पंचमी को। जबकि मुसलमान हर शुक्रवार को आ सकते थे-नमाज के लिए। अगर आप सिर्फ इतिहास के जिज्ञासु हैं, न हिंदू हैं, न मुसलमान हैं तो हमारा सेकुलर सिस्टम आपको इस एक हजार साल पुरानी इमारत में दाखिल होने की इजाजत नहीं देता था। केंद्र में अटलजी की सरकार थी। जगमोहन संस्कृति मंत्री थे। राज्य में दिग्विजयसिंह की सरकार की दूसरी पारी थी। हिंदू जागरण मंच ने भोजशाला का मसला गरमा दिया था। तर्क गले उतरने वाला था कि साल में 52 दिन उनके लिए, सिर्फ एक दिन हमारे लिए क्यों?
उस दिन पुलिस के जवान ने मुझे रोककर अपनी ड्यूटी निभाई। मैं मुख्य द्वार से ही भीतर एक गहरी निगाह से झांककर देखा। सामने ऊंचे स्तंभों की एक श्रृंखला नजर आई। दरवाजे के पत्थरों को गौर से देखा। कोई नेत्रहीन भी इन पत्थरों को टटोलकर बता सकता था कि मंदिर है या मस्जिद! जो भी हो अब यह एक राजनीतिक उलझन थी। मैंने अखबार और टीवी में रहते हुए दो मौकों पर तब कवर किया, जब वंसत पंचमी के दिन शुक्रवार भी आया। सरकार के सामने संकट यह खड़ा हुआ कि नमाज कब हो, पूजा कब हो। पूजा की शानदार तैयारियों में जुटे हिंदू जागरण मंच काे यह गवारा नहीं था कि एक दिन के लिए सरस्वती के प्राचीन मंदिर में उनकी मौजूदगी में कोई आए।
उधर आम मुसलमानों को कोई लेना-देना नहीं था मगर सरकार के लिए चुनौती थी कि नमाज भी हुई, यह दुनिया को दिखाए। तो सरकारी विभागों में कार्यरत कुछ मुस्लिम कर्मचारियों को दोपहर के वक्त कड़ी सुरक्षा में लाकर ऊपर छत पर नमाज की मुद्रा में खड़ा करके तस्वीरें प्रचारित कर दी गईं कि बिना किसी रोकटोक के नमाज हो गई। उस दौरान पूजा रोक दी गई। गुस्साए हिंदुओं पर थोड़ी-बहुत लाठियां भांज दी गईं। आंसू गैस के गोले छोड़ दिए गए। शाम ढलते-ढलते सबने राहत की सांस ली कि सब कुछ निपट गया। ऐसा कांग्रेेस के समय भी हुआ और बीजेपी के शासन में भी!
यह प्रसंग मुझे याद इसलिए आया कि कल भोपाल की प्रशासन अकादमी में राजा भोज के स्थापत्य पर एक अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में जाने का मौका मिला। एक सत्र की अध्यक्षता करते हुए मैंने उस एक साल को याद किया जब मैंने अपने सारे साप्ताहिक अवकाश राजा भोज के अध्ययन में इस्तेमाल किए थे। मैंने इंदौर के पुरातत्व संग्रहालय और नईदुनिया की लाइब्रेरी में मौजूद किताबें घोंटी। परमारों पर गहरा शोध करने वाले डॉ. शशिकांत भट्‌ट के साथ कई बैठकें कीं। दुनिया एक भोजशाला को जानती है और वो भी विवादों की वजह से। इस रिसर्च के दौरान मैं बाकी दो भोजशालाओं में भी गया।
पहली थी उज्जैन में, दूसरी धार में और तीसरी मांडू में। उज्जैन परमारों की पहली राजधानी थी, राजा भोज जिसे धार लेकर गए। राजा भोज के समय बनी ये शानदार इमारतें संस्कृत के स्कूल थे, जहां सरस्वती की प्रतिमाएं भी स्थापित थीं। भोज सिर्फ एक राजा नहीं थे। वे कई विषयों के गहन ज्ञाता और विद्वान भी थे। व्याकरण, भाषा, साहित्य, नाटक, नृत्य, संगीत, जल प्रबंधन, वास्तु, नगर नियोजन, मंदिर निर्माण, स्थापत्य जैसे तमाम विषयों के विद्वानों की एक बड़ी प्रसिद्ध परिषद थी, जिसमें शामिल होने लिए कश्मीर तक के विद्वानों में होड़ रहती थी। भोज के समय इन इमारतों के नाम भोजशाला नहीं थे। वे आज के शासकों की तरह छोटे दिल के नहीं थे कि अपने नाम से एक स्कूल बनाएंगे, किसी चौराहे पर मूर्ति लगवाएंगे या शासन की योजनाएं चलाएंगे। भोज के समय इनके नाम थे-सरस्वती कंठाभरण। इस नाम के दो ग्रंथ भी उन्होंने लिखे थे और यह उनकी उपाधि भी थी।
उज्जैन, धार और मांडू तीनों जगह के ये भोजकालीन भव्य स्थान 1401 में दिलावर खां गौरी ने एक साथ एक जैसे स्ट्रक्चर में बदले। सरस्वती कंठाभरण के मलबे से ही चारदीवारी में घिरे एक जैसे परिसर बने, जिन्हें अब आज भोजशाला कहते हैं। उज्जैन में वह अनंतपेठ मोहल्ले में आज बिना नींव की मस्जिद है। मांडू के शाही परिसर में दिलावर खां गौरी का मकबरा अौर धार के बारे में सब जानते ही हैं। धार राजा भोज की प्रिय धारा नगरी है। भोज के समय इसके वैभव के कमाल के विवरण हैं। बाद की सदियों में जो कुछ हुआ, वह भी मालवा की घायल याददाश्त में दर्ज है।
परमारों के आखिरी राजा महलकदेव हैं, जिनके समय दिल्ली के सुलतान इल्तुतमिश ने मालवा पर धावा बोला था। तब इस इलाके के सारे मंदिर मिट्‌टी में मिला दिए गए। उज्जैन में महाकाल का मंदिर भी पहली बार तभी तोड़ा गया। विदिशा में विजय मंदिर मलबे में बदल गया। गांव-गांव में जो खंडित मंदिर, टूटी-फूटी मूर्तियां आज तक अपने जख्मों का परिचय देती हुई बाहर आती हैं तो यह उन्हीं सात सदियों की कहानियां कहती हैं, जब ऐसे अंधड़ हर तरफ चल रहे थे। धार में माेहम्मद बिन तुगलक, मलिक काफूर, अकबर, जहांगीर के आने के जिक्र हैं। दिल्ली के बादशाहों-सुलतानों की दक्षिण में मचाई लूटमार के रास्ते पर भोज की धारा नगरी थी। आज देश के दूसरे तमाम बदहाल शहरों जैसा एक और शहर,जिसका अपने समृद्ध अतीत से कोई संबंध शेष नहीं है। दिलावर खां गौरी मालवा का पहला स्वतंत्र सुलतान बना। यह बाबर के भारत आने के सवा सौ साल पहले का वाकया है। हाेशंग शाह गौरी उसका उत्तराधिकारी था, जिसके नाम से होशंगाबाद है और जिसने भोपाल में भोजपुर के पास बने भोज के बांध को तुड़वा डाला था।
हमें 70 साल में हुए राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के नाम भी क्रम से याद नहीं होंगे मगर एक हजार साल के इस पार राजा भोज अब तक हमारी स्मृतियों में जगमगा रहे हैं। क्यों? अगर वे सिर्फ एक राजा होते तो किसे याद रहते? हजारों राजा, सुलतान, बादशाह और नवाब इतिहास के कूड़ेदान में हैं। भोज ने एक आदर्श शासक की तरह हर तरह की कलाओं को अपने राज्य में विकसित किया। गुण संपन्न लोगों को अपने आसपास सम्मान से जगह दी। शानदार निर्माण कराए। किताबें लिखीं। सरस्वती कंठाभरण जैसे ज्ञान के केंद्र नई पीढ़ी को गढ़ने के लिए स्थापित किए। एक छोटी सी जिंदगी और उसमें भी बहुत छोटे शासन के अवसर को इस तरह से जिया कि उनके समय का वैभव सब समाप्त हो गया, मगर वे अब भी आदर से स्मरण किए जाते हैं। हमारे आज के शासक अगर उनसे कोई एक बात भी सीख लें तो बहुत कुछ यादगार कर सकते हैं।
कभी भारतीय ज्ञान परंपरा का सक्रिय केंद्र रही धार की भोजशाला बाद की सदियों में भारत भर की राख और धुएं की कहानी का एक सुलगता हुआ हिस्सा बनकर हमारे सामने है...
#rajabhoj #vijaymanohartiwari #internationalconference
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भोपाल की प्रशासन अकादमी में तीन दिन की एक कॉन्फ्रेंस राजा भोज के स्थापत्य और परंपरागत ज्ञान पर हुई। दूसरे दिन एक सत्र में मुझे भी जाने का मौका मिला। भोज के रचना संसार के कुछ जानकारों को सुना। मगर कई बड़े नाम यहां नदारद भी थे। जैसे-भगवतीलाल राजपुरोहित, केके चक्रवर्ती, रेवाशंकर द्विवेदी, आरके शर्मा, डॉ. एसके भट्‌ट और डॉ. कपिल तिवारी। लगा कि बहुत जल्दबाजी का आयोजन था वर्ना भोज के बहुआयामी व्यक्तित्व और बेमिसाल कृतित्व पर जीवन के 30-40 साल लगाने वाले ये जाने-माने नाम कैसे छूट सकते थे? इतिहासकार डॉ. रहमान अली और पुरातत्वविद ओपी मिश्रा को भी ताबड़तोड़ बाद में बुलाया गया। बहरहाल राजा भोज की भोजशालाओं पर मैंने भी काम किया था। कुछ यादें ताजा करने का मौका मिला।
24 दिसंबर 2017
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