Sunday 25 March 2018

मंडी बामौरा में साठ साल बाद

#VIJAYMANOHARTIWARI
नौकरियां हमें अपनी जड़ों से दूर कर देती हैं। आप चाहकर भी जुड़े नहीं रह पाते। मंडी बामौरा मेरे बचपन की बस्ती है, जिस पर कभी बहुत विस्तार से लिखने का मन है। राजीव अग्रवाल जैसे मित्र एक राग दरबारी शैली का व्यंग्य बामौरा पर लिखने के हिमायती हैं। लेकिन मैं शायद ही ऐसा कर पाऊं, हालांकि गुंजाइश पूरी है। एक बार नईदुनिया के रविवारीय में कवर पेज पर एक काल्पनिक कस्बा कथा लिखी थी। यह एक ऐसेे ही अलसाए हुए कस्बे की कहानी थी। इसमें कुछ किरदारों के नाम बामौरा के ही थे। उसी लेख को सौ गुना विस्तार दे दूं तो कस्बा कथा पूरी की जा सकती है। मगर यह एक जोखिम भरा काम होगा। मैं अपने बचपन की यादों और यादों में बसे किरदारों पर व्यंग्य शायद कभी न लिख पाऊं...
फिलहाल यूनाइटेड स्टेट ऑफ बामौरा का जिक्र इसलिए कि अभी-अभी परिक्रमा करके लौटा हूं। प्रसंग था जैन समाज की पहल पर हुए छह दिवसीय पंच कल्याणक और गजरथ महोत्सव का। मुनिश्री निर्वेग सागर, अजित सागर, प्रशांत सागर, विषद सागर, दयासागर और विवेकानंद सागर की उपस्थिति में यहां उत्सव की धूम रही और जैन कारोबारियों ने इस दौरान पूरी तरह अपने कारोबार बंद रखे। आसपास के शहरों से भी हर दिन बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए। दो रूप में गर्भ कल्याणक, जन्म कल्याणक, तप कल्याणक, ज्ञान कल्याणक और मोक्ष कल्याणक के मनोरम दृश्य हर दिन देखे गए। आचार्य विद्यासागरजी के 50 वें दीक्षा महोत्सव के उपलक्ष्य में आए इस प्रसंग में जैन समाज के हर परिवार की भागीदारी रही। कई परिवारों की तीन पीढ़ियां इस रौनकदार जलसे में मौजूद थीं। हर दिन मुनि संघ ने शुद्ध और सात्विक जीवन जीने के व्यावहारिक सूत्र बताए।
मेरे स्कूल के साथी अरविंद जैन का आदेश था इसलिए समापन से एक दिन पहले कुछ घंटे मैं भी इसमें शरीक हुआ। यह तीर्थंकरों की प्राचीन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा का भी प्रसंग था। जो लोग इस इलाके से वाकिफ नहीं हैं, उन्हें बताना चाहूंगा कि भोपाल से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर के फासले पर रेल लाइन पर बसा यह छोटा सा कस्बा ऐतिहासिक रूप से मालामाल है। यहां आसपास मौजूद पुरातात्विक स्मारक हमारी स्मृतियों को डेढ़ हजार साल पहले ले जाते हैं। मसलन भगवान आदिनाथ को ही लें। 1957 में बामौरा गांव में खुदाई में करीब 12 फुट ऊंची शानदार प्रतिमा सामने आई थी। ऐसा कहते हैं कि किसी को स्वप्न आया था। यह एक बेहद खूबसूरत प्रतिमा है, जिसमें भगवान आदिनाथ नेत्र मूंदे सावधान की मुद्रा मंे खड़े हैं। इसे तब जंजीरों के सहारे नगर की दूसरी लाइन के जैन मंदिर में लाया गया था। मंदिर की पहली मंजिल पर एक दीवार पर वह ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर मौजूद है, जिसमें प्रतिमा के सामने बैठे तीन बच्चे दिखाई दे रहे हैं। ये हैं-डॉ. आरके जैन, विनाेद गुड़ा और संपत बुखारिया। जिस जगह यह प्रतिमा मिली, वहीं करीब 900 साल पुराना परमारकालीन शिव मंदिर है, जिसे बीच की किसी सदी में यहां आए जाहिल हमलावरों ने खंडित किया। ऊपर से नीचे तक ही मूर्तियों को छीलकर ऐसा छोड़ा जैसे टूटे-फूटे पत्थरों का एक ढेर हो। वे खंडित मूर्तियां भी मंदिर के चारों तरफ अपने घायल अतीत के किस्से सुनाती हैं। भगवान आदिनाथ को हमारे किसी समझदार पूर्वज ने जमीन के भीतर समाधि में सुरक्षित रखा होगा, वे साठ साल पहले साबुत बाहर आए।
प्रतिमा के सामने आने के बाद 1958 में ऐसा ही पंच कल्याणक महोत्सव आयोजित हुआ था। पंचकल्याणक एक ऐसा प्रसंग है, जब तीर्थंकरों के पवित्र जीवन की पूरी झांकी आपके सामने प्रस्तुत होती है। उनके गर्भ में आने से लेकर निर्वाण तक। कैसे एक सामान्य देहधारी कैवल्य ज्ञान की महान उपलब्धि तक अपने जीवन का निर्णायक स्वयं बनता है और परमात्मा का प्रसाद बनकर सदियों बाद भी लाखों लोगों के दिलों में राज करता है। जैन परंपरा के चौबीसों तीर्थंकरों का जीवन इसकी जगमगाती मिसाल है। राजकुलों में पैदा हुए वे महान लोग त्याग और तप के ऐसे उदाहरण भी बने, जिसकी मिसालें इतिहास में कम ही हैं। ऐसा त्याग कि कब वस्त्र का आखिरी टुकड़ा भी शरीर से गिर गया, उन्हें पता ही नहीं चला। वे अलग लोक से संबद्ध हो चुके थे। एक ऐसे शाश्वत लोक का हिस्सा, जहां से उन्हें मनुष्य की देह में फिर आना नहीं था। वह जीवन जन्म-मरण की यात्रा का अंतिम पड़ाव था।
मंडी बामौरा की 20 हजार से ज्यादा आबादी में सौ से कम परिवार जैनियों के हैं। आधे से ज्यादा बाजार पर उनका वर्चस्व है। यह कारोबारी राजपाट उनकी अपनी कमाई है। वे आज जिस हैसियत में हैं, उसमें तीन-चार पीढ़ियों का परिश्रम और पुरुषार्थ लगा है। मेरे साथ पढ़े अरविंद, राजेश, अरुण जैन या मनीष समैया को भले ही राजगद्दी पुश्तैनी तौर पर मिली हो मगर अपने पिता और दादा की बनाई उस चमकदार हैसियत को बनाए रखने में इनके जीवन के भी 25 साल खप चुके हैं। आज कठरया, बजाज, समैया, गुड़ा और पनारवाले इस बस्ती के स्थापित ब्रांड नेम हैं। अगर हैप्पी यहां मिलते तो पंचरत्न का ब्रांड नेम भी इसमें जुड़ता। एक समय पंचरत्न परिवार की भी मालदार हैसियत हुआ करती थी। हमारे सहपाठी हैप्पी के दादा सेठ भगवानदास पंचरत्न अनाज के समृद्ध कारोबारी थे। साठ के दशक में उनके यहां फलते-फूलते कारोबार में बग्घी, ट्रक, जीप और टेलीफोन हुआ करते थे। उनके सुपुत्र और मेरे मित्र हैप्पी के परम पूज्य पिताश्री कस्तूरचंद पंचरत्न सागर से पढ़कर आए उन गिने-चुने स्नातक युवाओं में से थे, जो फर्राटेदार अंग्रेजी में बात करते थे। मगर उनके जीवन का सार यह निकला कि माया महाठगिनी है। अपरिग्रह के संदेश को उन्होंने अपने ही ढंग से अंगीकार किया। इस परिवार की तीसरी पीढ़ी ने अपने बूते छिंदवाड़ा में एक नए अध्याय की शुरुआत जीरो से की, जहां डॉक्टर सनत, हैप्पी और सुषमा दीदी अपने खुशहाल परिवारों में मंडी बामौरा की दूसरी-तीसरी लाइन की सुनहरी यादों को ताजा करते होंगे।
मैं खुशनसीब हूं कि अपने गांव में साठ साल बाद हुए इस पवित्र धार्मिक और सामाजिक समागम में मुझे कुछ समय बिताने का मौका मिला। मैं पांच साल तक भारत की अपनी यात्राओं के दौरान कर्नाटक में गोम्मटेश्वर से लेकर उत्तरप्रदेश में श्रावस्ती के पास भगवान संभवनाथ के जन्मस्थान और बिहार में राजगृह-नालंदा तक गया हूं। आचार्य विद्यासागर से लेकर आचार्य चंदनबाला से मिलने के अवसर मिले। मुनिश्री तरुणसागरजी के कड़वे प्रवचन के तीसरे भाग की भूमिका लिखी।
मैं मानता हूं कि हर इंसान की तरह बस्तियों की भी याददाश्त होती हैं। मंडी बामौरा की याददाश्त में इस पंचकल्याणक की स्मृतियां भी अंकित हो गईं। आज की तस्वीरों में मौजूद दस-पांच साल के बच्चे दशकों बाद अगले ऐसे ही महोत्सव में अपने बच्चों और बच्चों के बच्चों के साथ अपने बचपन की इन स्वर्णिम स्मृतियों को ताजा करेंगे। मैंने मुनिश्री अजितसागरजी से मुलाकात में कहा कि हमारे यहां इतिहास लेखन की परंपरा नहीं है। ऐसे अवसर इतिहास में दर्ज होने चाहिए। इनका विस्तृत दस्तावेज बनना चाहिए। आयोजन के सारे खर्च की दो चार फीसदी रकम इस पर भी खर्च होनी चाहिए कि यह अवसर रिकॉर्ड पर आ जाए। ताकि सनद रहे....
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मुनि संघ की शिक्षा: जो प्राप्त है साे पर्याप्त है
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-संत न बनो, न सही मगर जीवन में संतोषी ही बन जाओ तो यह भी परम ज्ञान की तरफ बढ़ा हुआ एक छोटा सा कदम है।
-जो प्राप्त है सो पर्याप्त है। अगर जीवन का दर्शन यह हो जाए तो बहुत सारी व्याधियों से समाज मुक्त हो जाए। तनाव मुक्त हो जाए।
-बच्चों को अपने निकट रखें। एक घर में उन्हें प्राइवेसी के नाम पर अलग न करें। इस किस्म की आजादी उन्हें हमसे अलग ही कर रही है।
-टीवी देखते हुए भोजन करना सेहत के लिहाज से कतई ठीक नहीं। मां को चाहिए अपने सामने बच्चों को भोजन कराए। पत्नी पति को ऐसे ही भोजन कराए। अन्यथा कह दे कि ऐसा न किया गया तो वह व्रत करेंगी।
#PANCHKALYANAK #GAJRATHMAHOTSAVA
21 फरवरी 2018
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