Sunday 25 March 2018

मेरे पत्र पर रानी पद्मिनी का जवाब आया है-


प्रिय विजय
तुम्हारे पत्र ने चित्तौड़गढ़ की स्वर्णिम स्मृतियों को ताजा कर दिया। वे स्मृतियां जो उस मनहूस दिन राख में बदल गईं थीं। चित्तौड़ के अासमान पर उस दिन सूरज रोज की तरह चमक रहा था। मगर हमारे जीवन में एक गहरी अमावस सामने तय थी। राजपूतों की पीढ़ियों की प्रतिष्ठा दाव पर थी। रनिवास में हम सबके चेहरों का रंग उड़ा हुआ था। ऐसा खौफ इसके पहले कभी महसूस नहीं हुआ था। हमारे पुरुष वीर थे। वे वीरों की तरह ही अपने भाल पर तिलक लगाकर युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। हमने अपने दुश्मन पर भी विश्वास किया। कोई छलकपट, धोखा नहीं किया। यही हमारा संस्कार था। शायद यही हमारी कमजोरी थी। आखिरकार हम अपने ईश्वर का स्मरण करते हुए कतार से अग्निकुंड में जाकर अपनों से और अपनी जिंदगी से विदा हुए थे। वह शारीरिक पीड़ा तो पल पर की थी। लपटों में जाकर प्राण पखेरू कुछ ही क्षणों में उड़ गए थे। देह कुछ देर में भस्म हो गई थी। मगर जिंदा रहते बेबसी के वे आखिरी पल पराजय और अपमान की भयावह मानसिक पीड़ा के थे। वह टीस देहमुक्त होने के सात सौ साल बाद भी कम नहीं हुई।
चित्तौड़ को राख में से फिर उठ खड़ा होने में ज्यादा समय नहीं लगा होगा। मगर तब हम नहीं थे। हम चित्तौड़ की यादों का हिस्सा हो गए। चंदेरी की रानी मणिमाला और रायसेन की रानी दुर्गावती के सामूहिक आत्मदाह के बारे में आपने लिखा है। आप इतिहास की किताबें खंगालेंगे तो पता चलेगा कि चित्तौड़ की हैसियत तब आज की दिल्ली जैसी थी। कई राजपूत राजघरानों का शक्तिकेंद्र चित्तौड़ ही था। राणा कुंभा, राणा सांगा और महाराणा प्रताप ने मेवाड़ को शक्तिशाली बनाया था। तब हमारे बहुत गहरे रिश्ते रायसेन, चंदेरी और मांडू के राजाओं से थे। हम जानते हैं कि बाद की सदियों में मणिमाला और दुर्गावती के साथ भी सैकड़ों राजपूत औरतें जौहर के अग्निकुंडों में उतरकर हमारे पास आती रहीं। सुनाने के बाद सबके पास एक जैसी कहानियां थीं। राजपूत राजघरानों की वे रानियां भी अंतत: यहीं आईं, जो तुगलकों और मुगलों के हरम में गई थीं और उनके बच्चे हुए थे, जिनमें से कई सुलतान और बादशाह भी बने। मेरे समय खिलजी था। बाद में नाम बदलते गए। जौहर की आग बुझी नहीं। वह किलों में भी धधकती रही और दिलों में भी! यह सदियों से आ रहे रुलाने वाले समाचारों की ऐसी श्रृंखला है, जिसने हमारी आत्मा को भी इस लायक नहीं छोड़ा कि हम दूसरी देह धारण करके फिर लौटने का साहस करते।
आपने देश के तीन टुकड़ों में बंटने के बारे में भी लिखा। इसका पता हमें तभी हो गया था। पाकिस्तान नाम के टुकड़े में, जो लोग हमारे जैसी ही मौत मरने के लिए मजबूर हुए, उन औरतों-बच्चों के भी कई काफिले यहां आए। कोई कुएं में कूद कर मरा था। कोई तलवारों से काटा गया। कोई जीते-जी शोलों में बदल दिया गया। लाशों से भरी ट्रेनें। कई औरतें, जो लूट के माल की तरह उठा ली गईं थीं, वे एक लंबी यातना भरी जिंदगी जीने के बाद कहीं गुमनाम अंधेरी कब्रों में जा सोईं। वे न इज्जत से जी सकीं, न मर सकीं। उनकी रूह कंपाने वाली कहानियां हमने यहां सुनीं।
तुमने एकदम सच कहा। भारत से हमारा परिचय तथागत गौतम बुद्ध से ही था। श्रीलंका में बुद्ध का विचार भारत से ही आया था। हमारी कल्पना थी कि जहां कभी बुद्ध हुए, वहां हर तरफ शांति होगी, विपस्सना के अनुभव होंगे। जीवन अपने सुंदरतम रूपाें और कलाओं में विकसित हो रहा होगा। निस्संदेह यह धरती का ऐसा टुकड़ा होगा, जिसके पास दुनिया को बताने के लिए काफी कुछ शुभ समाचार होंगे। अजंता-एलोरा, सांची-सारनाथ, नालंदा-विक्रमशिला में बुद्ध का विचार कितने रूपों में खिला, इसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। मगर क्या भारत ने कभी कल्पना की थी कि उसकी समृद्धि किन बेरहम बहेलियों को सदियों तक हमलों और कब्जों के लिए एक खुला निमत्रंण हो सकती है? क्या भारत ने कभी सोचा था कि उसे किन ताकतों से टकराना होगा? किस-किस तरह के बर्बर काफिले भारत का शिकार करने आने वाले हैं? वे किस तरह की कभी न खत्म होने वाली लड़ाइयों में भारत को कोने-कोने में धकेल देंगे और कब्जे कर-करके एक नई पहचान कायम करने की निर्लज्ज कोशिशें करते रहेंगे? किस तरह हमारे ही लोग उस नई पहचान में अपनी जड़ों को भुलाकर गाफिल हो जाएंगे?
दुनिया के इतिहास में यह बहुत ही दर्दनाक अनुभव हैं, जो भारत के हिस्से में आए। भारत धरती का एक और बेजान टुकड़ा भर नहीं था। सदियों की विकास यात्रा में इस देश ने संसार को कई कमाल की चीजें दी थीं। यहां का धर्म इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि अंतत: समस्त प्रकार की हिंसाओं से मुक्त होकर सच्ची मानवता के लिए खुले दिल और दिमाग से ही कुछ श्रेष्ठ हो सकता है। इसलिए हमने महाविनाश के महाभारत भी भुगते, किंतु एक समय बुद्ध की शांति को ही शिरोधार्य किया।
मैं पूछना चाहती हूं कि क्या भारत ने आज भी कभी इनके बारे में ठीक से सोचा है? मैं चाहती हूं कि हम एक बार तो सच का सामना करें। यह हमारा साझा सच है। इसमें कोई बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक नहीं है। तुमसे सहमत हूं कि हम ही बहुसंख्यक हैं। हम ही अल्पसंख्यक हैं। मैं सात सदियों के इस पार से बहुत साफ देख सकती हूं कि हम सब एक ही हैं। सरहदों के इस तरफ भी हम हैं, उस पार भी हम हैं। मंदिरों में स्तुति भी हम कर रहे हैं, मंदिर के विरोध में भी हम ही हैं और हमें अहसास भी नहीं। रावलपिंडी के पास तक्षशिला किसने बनाया था? अफगानिस्तान में बामियान के बुद्ध किसने गढ़े थे? शैव और बौद्ध परंपराओं का केंद्र रहे कश्मीर में हम ही हम पर पत्थर फैंक रहे हैं। हम ही हमारे पीछे बम-बारूद लिए पड़े हैं। जो जबरन थोपी गई नई पहचानों में गाफिल हैं, वे भी उन आंधियों में उड़े हुए तिनके ही हैं, जो सदियों तक देश के हर हिस्से में हमें भुलाती-भटकाती रहीं। मैं तो उस अपवित्र आंधी से सीधी टकराने वाली बेबस सदियों की एक अभागी किरदार भर हूं।
खिलजी से चित्तौड़ का सामना कोई नई घटना नहीं थी। उसके पहले जलालुद्दीन खिलजी ने भी रणथंभौर को जमकर लूटा और बरबाद किया था। और पहले बिहार-बंगाल में भी नालंदा और विक्रमशिला आग के हवाले किए गए थे। ये कारनामे भी किसी बख्तियार खिलजी ने ही किए थे। गजनी से आए किसी बेरहम मेहमूद ने तो 17 बार भारत को रौंदा था। हम सोमनाथ के किस्से सुनते थे तो डर से ज्यादा आश्चर्य होता था। लूटकर हमारे देवालयों को तोड़ गिराने का मतलब हम कभी नहीं समझे और कई जगह उन्हीं मंदिरों के मलबे से नई इमारतें बनाना तो बिल्कुल ही समझ के परे था। अजयमेरू यानी आज का अजमेर तो हमसे ज्यादा दूर नहीं था। वहां जिसे आप अढाई दिन का झोपड़ा कहते हैं, जरा उन पत्थरों को आंख खोलकर और दिल थामकर देखिए। वे जख्मों की कौन सी कहानी सुना रहे हैं?
सच बात तो ये है कि तब पूरा देश ही मलबे में बदल रहा था। देश हर जगह एक नई और डरावनी शक्ल ले रहा था। चारों तरफ से व्यापारी समूह और राजदूत उस समय के भारत में चल रही लूट और हमलों की कहानियां चित्तौड़ में भी आकर सुनाया करते थे। चित्तौड़ के किले पर खड़े होकर तब हम चर्चाएं किया करते थे कि कोई शासक ऐसा कैसे कर सकता है कि देवताओं की मूर्तियों को तोड़कर मांस तौलने के लिए कसाइयों को दे दे या किसी मस्जिद की सीढ़ियों पर चुनवा दे ताकि वह लोगों के पैरों तले रौंदी जाए? कौन सा धर्म इसकी इजाजत देता है? सत्तर साल पहले एक नया शब्द भारत से सुनने में आया-सेकुलर। मगर हम इसका मतलब नहीं समझे और जो खबरें अब आती हैं तो लगता है कि मेरे भारत को ये क्या हो गया? भारत अपनी चमकदार लेकिन गुमशुदा याददाश्त के साथ किस दिशा में कूच कर गया?
अरे हां, किन्हीं संजयलीला भंसाली का जिक्र तुमने किया है। मुझे अच्छा लग रहा है कि वे कोई फिल्म मुझ पर बना रहे हैं। तुम देखो तो बताना कि पद्मिनी की कहानी को कैसे दिखाया? मुझे विश्वास ही नहीं है कि हमारे दौर की त्रासदियों को कोई जस का तस दिखा सकता है। उसे सब्र से देखने और देखकर शांत रहने के लिए भी बड़ा कलेजा चाहिए। कभी सोचना, आपके घर के चारों तरफ भूखे भेड़ियों जैसे नाममात्र के इंसानों की शोरगुल मचाती पागल भीड़ हाथों में तलवारें चमकाती हुई घेरकर खड़ी हो। वे कभी भी दरवाजा तोड़कर आपके घर में दाखिल हो सकते हों। कोई बचाने वाला न हो। आपकी ताकत लगातार घट रही हो। दाना-पानी बाहर से सब रोक दिया गया हो। आप कब तक टिकेंगे और जब वे भीतर दाखिल होंगे तो क्या होगा? जो होता था, हमने उसके भी खूब किस्से सुने हुए थे। इसलिए हम यह कठोर फैसला कर पाए कि इज्जत की मौत ही ठीक है। भंसाली साहब के लिए यही कहूंगी कि सिर्फ मुनाफे के लिए इतिहास से न खेलें। हम पर जो गुजरी, उसका सौदा न करें। अपनी दादी, नानी, मां, बहन, पत्नी और प्रेयसी में पद्मिनी को देखें। फिर तय करें कि क्या दिखाना है, क्यों दिखाना है?
विजय, तुमने पत्र लिखा। मुझे मेरे आहत अतीत की स्मृतियों में ले जाने के लिए धन्यवाद। अब संपर्क में बने रहना। जो जुल्मों की दास्तान सुनाने के लिए भारत में नहीं बच नहीं सके, वे सब यहां आए। मेरे पास बहुत कुछ है बताने को। भूलना मत। फिर कुछ लिख भेजना। पद्मिनी को भूलने का मतलब इतिहास को भूलना होगा!
-पद्मिनी
17 नवंबर 2017
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