Saturday 23 September 2017

इभ्या से मिलिए

 राजस्थान में चित्तौड़गढ़ से 40 किलोमीटर दूर कपासन गांव में है इभ्या का ननिहाल। बीते अगस्त के अंत में इस बच्ची की तरफ अचानक देश का ध्यान गया। वह सिर्फ दो साल दस महीने की है। इस उम्र में कोई क्यों मीडिया में सुर्खी बनेगा। इभ्या अपने माता-पिता के कारण चर्चा में आई। पिता सुमित राठौर की उम्र 35 साल है। वे मध्यप्रदेश के नीमच के एक मालदार कारोबारी श्वेतांबर जैन परिवार के हैं। उनकी पत्नी अनामिका कपासन की हैं। अनामिका के पिता अशाेक चंडालिया चित्तौड़गढ़ में दस साल बीजेपी के जिला अध्यक्ष रहे हैं। चंडालिया एक जाना-माना परिवार है।

  यह परिवार जैन तीर्थंकरों की परंपरा में श्वेतांबर हैं। श्वेतांबरों में भी दो शाखाए हैं-मंदिर मार्गी और साधु मार्गी। वे साधु मार्गी श्वेतांबर हैं। ये मंदिरों में तीर्थंकरों की मूर्तियां पूजने की बजाए अपने आचार्यांे को सुनते हैं। हर चातुर्मास में पर्यूषण पर्व के समय आठ दिन आचार्य के आसपास ही रहते हैं। आचार्य देश के किसी भी कोने में हों। साधनों ने दूरियों और अहमियत कम कर दी है। उनके आचार्य रामलाल सूरत में चातुर्मास के लिए आए। इस साल यहां उन्होंने करीब दस दीक्षाएं दी हैं। इनमें सुमित-अनामिका एकमात्र दंपत्ति हैं। चार साल पहले ही तो शादी हुई थी। एक छोटी सी बच्ची है उनकी। इभ्या उसी का नाम है।

 सुमित-अनामिका की दीक्षा की खबर फैलते ही इभ्या से मिलने के लिए भोपाल से नीमच जाने का योग बना। पता चला कि वह तो ननिहाल में है। कपासन में। बिना रुके मैं शाम सात बजे तक चित्तौड़गढ़ पहुंचा तब तक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता रामेश्वर शर्मा अशोक चंडालिया को मेरे आने की सूचना देने के साथ मुलाकात का निवेदन कर चुके थे। रात अाठ बजे उन्होंने मुझे कपासन में वक्त दिया। तय वक्त पर मैं इस बस्ती में पांच बत्ती चौराहे के पास बिजली के सामान की एक पुरानी दुकान पर बैठा था, जहां संयाेग से पांचों चंडालिया भाइयों से मेरी एक साथ मुलाकात हुई। हम आधे घंटे से ज्यादा बैठे। इस बीच मैंने इभ्या के दर्शन की इच्छा प्रकट की। उसे घर से लाया गया। वह नींद में थी। अनिच्छा से उठाकर लाए जाने से नाराज और इस हालत में दूर से आए किसी अजनबी से तो खुश होकर मिलने का कोई सवाल ही नहीं था। वह मेरे पास गोद में भी नहीं आई। नाम तक नहीं बताया। पूरे समय रूठी रही। मैंने उसको सॉरी कहा। उसके नन्हें से पैर छुए। उसने कोई भाव नहीं दिए।
 चंडालिया बंधुओं से सत्संग में कहानी कुछ यह पता चली- पिछले महीने आचार्यश्री रामलाल के प्रवचन सुनने के लिए सुमित और अनामिका एक साथ ट्रेन से निकले थे। इसी ट्रेन में चित्तौड़गढ़ से अशोक चंडालिया सपत्नीक सवार थे। नीमच में बेटी, दामाद और नातिन इभ्या साथ हो लिए। उस सफर में सुमित उन्हें अपनी पहली बड़ी कारोबारी कामयाबी के किस्से सुना रहे थे। वे खुश होकर बता रहे थे कि उनका बिजनेस अच्छा चल रहा है। ग्रीस से उन्हें सीमेंट पैकिंग के 32 लाख बैग एक्सपोर्ट करने का पहला ऑर्डर भी मिला है। नीमच में फैक्ट्री सुमित ने ही 2013 में शादी के बाद शुरू की थी। सुमित के बड़े भाई अमित अपनी दोनों बेटियों के साथ गुरुग्राम में रहते हैं। नीमच में उनके पिता राजेंद्र राठौर और मां सुमन राठौर हैं। अपने काबिल दामाद की यह कामयाबी पर्यूषण के लिए निकले अशोक चंडालिया को एक बड़ा शुभ समाचार था। कपासन में वे पांच भाइयों में बीच के हैं। कारोबारी चंडालिया परिवार चार पीढ़ियाें से कपासन में है। पीपली बाजार के दूगड़ मोहल्ले में उनकी रिहाइश भी एक साथ है। होनहार दामाद ने इतनी बढ़िया खबर देकर आचार्य से भेंट के पहले ही उन्हें खुश कर दिया था।
 मगर कल किसने देखा है? 22 अगस्त की सुबह सुमित ने सबको चौंकाया। उन्होंने आचार्यजी की सभा में कहा-मुझे दीक्षा दीजिए!  उस दिन अशोक चंडालिया, अनामिका और इभ्या सभा में पीछे बैठे थे। सुमित आगे थे। जब यह समाचार पीछे पहुंचा कि सुमित ने दीक्षा का भाव प्रकट किया है तो उनके परिवारजन फौरन आगे आए। इसका अंदाजा उन्हें आते वक्त बिल्कुल नहीं था। 28 अगस्त के सबके रिटर्न टिकट भी साथ ही थे। अशोक याद करते हैं-हमने देखा कि सुमित राजेशमुनि के साथ चल दिए थे। बाद में हम सबने उन्हें समझाया कि अभी दीक्षा लेना बहुत जल्दबाजी होगी। बच्ची छोटी है। मगर वे नहीं माने।
 श्वेतांबरों में रिवाज है कि अविवाहित की दीक्षा के लिए माता-पिता और विवाहित की दीक्षा के लिए पति या पत्नी की लिखित अनुमति जरूरी है।  सुमित के लिए अनामिका की अाज्ञा जरूरी थी। अनामिका से पूछा गया तो उसने कहा-मेरी आज्ञा तभी है, जब मैं स्वयं साथ में दीक्षा लूं। आचार्य ने सुमित से सिर्फ इतना कहा-आपकी भावना उत्कृष्ट है। धर्म के प्रति सजग हैं। मगर कुछ समय रुकना चाहिए। करीब दो घंटे तक समझाइश का दौर चला। सुमित इतने उतावले थे कि बोले-हमारा समय क्यों खराब कर रहे हैं। दो घंटे और निकाल दिए! अगले दिन राठौर अौर चंडालिया परिवार के कई रिश्तेदार वहां पहुंचे। दोनों को समझाया। मगर सुमित और अनामिका नहीं माने। अशोक बताते हैं कि हमारे शास्त्रों के अनुसार नौ वर्ष की आयु में कोई भी दीक्षा का निर्णय ले सकता है। इस उम्र में उसकी समझ को पक्का माना जाता है।
 मेरी जिज्ञासा यह जानने की थी कि जिस पल सुमित ने दीक्षा का भाव प्रकट किया तब सभा में उनके आसपास हो क्या रहा था? वे क्या कर रहे थे? अगस्त की उस उमस भरी सुबह आचार्य रामलाल भगवान श्रीकृष्ण के भाई गजसु कुमार की दीक्षा का प्रसंग सुना रहे थे। गजसु दस साल के थे। द्वारिका में भगवान अरिष्टनेमि आते हैं। लोग उनके दर्शन करने गए। स्वागत के लिए श्रीकृष्ण और गजसु भी पहुंचे। महल में लौटकर मां देवकी को वे बोले-हमने भगवान अरिष्टनेमि के दर्शन किए। मां ने कहा-इससे आपकी आंखें पवित्र हुईं। वे बोले-हमने उनकी वाणी सुनी। मां  ने कहा-आपके कान पवित्र हुए। वे बोले-हमने वाणी को हदय में उतारा। मां ने खुश होकर कहा-आपका ह्दय पवित्र हुआ। गजसु ने कहा-हमने उनकी शरण में जाने का निर्णय लिया है। यह सुनकर देवकी बेहोश हो गईं। गजसु छोटे थे। उन्हांेने अपने किसी बच्चे को बचपन में खिलाया नहीं था। गजसु दीक्षा की बात भूल जाएं इसके लिए कृष्ण ने उन्हें एक दिन के लिए द्वारिका का राजा बनाया। अभिषेक हुआ। राजा के रूप में गजसु ने पहला आदेश दिया-दीक्षा की प्रक्रिया आरंभ की जाए! जैन दर्शन में यह एकमात्र उदाहरण है जब दीक्षा होते ही किसी को ज्ञान प्राप्त हुआ हो।
 20 हजार आबादी वाले कपासन में श्वेतांबर जैनियों के डेढ़ सौ परिवार हैं। यहां किसी युवा का दीक्षा लेना यहां कोई बड़ी खबर नहीं है। दीक्षा की परंपरा पुरानी है। चंडालिया परिवार में ही 1982 में कांताजी की दीक्षा हुई थी। वे अशाेक चंडालिया की भतीजी थीं। उनका नामकरण हुआ मुक्ताश्रीजी। दीक्षा बाद दो चातुर्मास में वे कपासन आईं थीं। वर्ष 2002 में यहां की दो लड़कियों ने श्रीगंगानगर में दीक्षा ली।  पड़ोस में ही दूगड़ परिवार है। दस साल में उनकी दो बेटियों की दीक्षा हुई। 2007 में बीस वर्ष की हैप्पी, जिनका बाद में प्रखरश्रीजी नाम हुआ और अभी 2017 में सूरत में ही हैप्पी की छोटी बहन अंकिता, जिनका अब अविकारश्रीजी नाम है। अंकिता  ने तो उदयपुर से एमबीए करने के बाद दीक्षा ली।  प्रखरश्रीजी दीक्षा के बाद एक बार चातुर्मास में कपासन आईं थीं। जो आचार्य रामलाल सुमित-अनामिका को दीक्षा देंगे, उनके गुरू आचार्य नानालाल कपासन के पास के ही एक गांव के रहने वाले थे। उनकी दीक्षा भी दशकाें पहले कपासन में ही हुई थी।

 मैं 16 सितंबर की रात कपासन में चंडालियाजी के साथ था। आते समय मुझे भय था कि पता नहीं वे मिलना चाहेंगे या नहीं। मगर वे खुलकर मिले। चाय से स्वागत किया। सारे सवालों के जवाब दिए। मगर मेरा ध्यान इभ्या पर था। तब वह जा चुकी थी। रात के दस बजने वाले थे। विदा लेने के पहले मैंने बहुत संकोच के साथ अशोकजी से अगली सुबह उनके घर मिलने का आग्रह किया। मैं इभ्या को उसके खुशहाल ननिहाल में देखना चाहता था। वे समझ गए। सुबह नौ बजे का वक्त उन्होंने दिया। आधा घंटा मुझसे मिलकर वे समता भवन निकलने वाले थे, जहां इस चातुर्मास में साधु-साध्वी ठहरे हुए हैं। उनके प्रवचन साधुमार्गी श्वेतांबरों के दिन की उम्दा शुरुआत होती है।
 मैं पांच मिनट पहले ही घर जा पहुंचा। पीपली बाजार के दूगड़ मोहल्ले में आप भी चलिए। इभ्या के ननिहाल में। उसके पिता सुमित राठौर की सूरत में एक नई जिंदगी शुरू होने वाली थी। संसार का सारा वैभव त्यागकर वे तीर्थंकरों के बताए तौर-तरीकों पर चलेंगे। अब उनका पूरा जीवन व्रत जैसा बीतेगा। जरा सोचिए-अब वे कभी स्नान तक नहीं करेंगे। किसी ऐसे कमरे में कभी नहीं ठहरेंगे, जहां एक बल्ब या पंखा भी लगा हो। वे नंगे पैर हमेशा पैदल ही चलेंगे। कठोर दिनचर्या का ज्यादा समय अध्ययन और तप में बीतेगा। यह ज्यादातर मालदार हिंदू धर्मगुरुओं, कथा वाचकों और प्रवचनकारों की तरह ऐश्वर्यपूर्ण धर्म का किस्से-कहानियों और मधुर गीतों से गूंूजता हुआ सुगंधित मार्ग नहीं है। मैं यहां आसाराम बापू, रामपाल और राम-रहीम को याद करना नहीं चाहता, न ही उन संतों का जो भांग की गोलियां औश्र खीर के कटोरे गटकते हैं। तो  कल तक करोड़ों में खेलने वाले और हर संभव सुख-सुविधा में जीने के आदी किसी भी इंसान के लिए ऐसी जिंदगी आसान नहीं है। क्या सिर्फ भावुकता में उन्हाेंने ऐसा फैसला ले लिया? क्या आने वाले समय के कष्ट उन्हें अपने फैसले पर पछतावे का मौका देंगे? कुछ कह नहीं सकते।
 इभ्या तो जैसे सबसे बेखबर थी। इस सुबह भी वह बहुत अनमनी थी।  इभ्या का नया जीवन तो 22 अगस्त को ही आरंभ हो चुका है, जब सूरत में सुमित-अनामिका ने दीक्षा लेने का निर्णय लिया और भरी सभा में संसार से विरक्त होकर अज्ञात दिशा में कदम बढ़ा दिए। पीछे पलटकर भी नहीं देखा। इभ्या की निगाहों में नहीं झांका। और अब उनका किसी से कोई रिश्ता नहीं होगा। इभ्या से भी नहीं। कोई नहीं जानता कि इभ्या उन्हें फिर कभी देख पाएगी या नहीं। माता-पिता के रूप में कभी नहीं। (मेरी मुलाकात के एक हफ्ते बाद दीक्षा के पहले से तय कार्यक्रम में शनिवार को कानूनी अड़चन के कारण मां अनामिका की दीक्षा टल गई।)ब
  जब मैं उससे मिला मुझे लगा कि सूरत से कपासन लौटने के बाद उसके मन में मम्मी-पापा की आखिरी छवि बहुत धुंधली सी  होगी। उसे अहसास भी नहीं होगा कि उसकी जिंदगी में कितना बड़ा फैसला उसके मां-बाप ले चुके हैं। लेकिन नाना का घर उसके लिए नया नहीं है। यहां सब चेहरे जाने-पहचाने हैं। इभ्या के पांच नानाओं के संयुक्त परिवार में सात मामा हैं। तीन मामियां हैं। इभ्या की उम्र के सौम्य और कनन हैं। अशोक चंडालिया के पोते-पोती। इन दिनों इभ्या हर समय किसी न किसी की गोद में है। लाड़ हमेशा से सबका था। अब कुछ ज्यादा है। इभ्या का जन्म यहीं उदयपुर में हुआ था। 26 नवंबर को तीसरा जन्म दिन पहली बार मम्मी-पापा के बगैर आएगा!
 सौम्य चार साल का है। 40 किलोमीटर दूर चित्तौड़गढ़ के एक बड़े स्कूल में कपासन के पांच दूसरे बच्चों के साथ पढ़ने जाता है। वह पहली क्लास में है। इभ्या के ताऊ अमित राठौर का परिवार नीमच से गुड़गांव शिफ्ट हो चुका है। बहुत संभव है उसका पालनपोषण नाना के घर में ही हो। जब इभ्या स्कूल जाएगी और उसकी क्लास के बच्चे अपने मम्मी-पापा के बारे में कुछ बताएंगे तो वह घर लौटकर नाना-नानी से अपने मम्मी-पापा के बारे में क्या सवाल करेगी? अशोक चंडालिया कहते हैं-हम उसे समझाएंगे। वैसे हमारे यहां बच्चे इस समझ से ही बड़े होते हैं इसलिए लगता नहीं कि वह बड़े होकर कोई सवाल करेगी।
  दीक्षा के बाद सुमित और अनामिका अपने नए नाम और रूप के साथ कभी नीमच या कपासन आएंगे? कभी आए और इभ्या उनके सामने आई तो क्या होगा? क्या उनके मन में बिटिया की कोई स्मृति शेष होगी?  दीक्षा का मार्ग सचमुच उन्हें अपनी विगत मासूम स्मृतियों से अलग कर देगा? दीक्षा के बाद सारे सांसारिक संबंध शून्य हो जाते हैं। इभ्या के लिए ये सवाल बेबूझ हैं। शायद बड़े होकर जब वह आचार्यों को सुनेगी और शास्त्रों को पढ़ेगी तो खुद समझेगी।
 अभी बेचैन सी दिखाई दे रही नन्हीं इभ्या के मन में मां के आंचल की स्मृति ज्यादा साफ हैं। अलग हुए अभी महीना भर भी नहीं हुआ। दादा-दादी के घर में काेई कमी नहीं थी। उसके आसपास हर साधन-सुविधाएं थीं। बड़ा घर। नई कारें। अच्छे से अच्छे कपड़े। मगर त्यागी तीर्थंकरों के रास्तों पर यह सब संसार का बेमतलब विस्तार है। इस चमक-दमक से छुटकारा ही चेतना की ऊंची अवस्थाओं में ले जा सकता है, जो मनुष्य देह धारण करने का सबसे महान मकसद है।
 किसी भी समुदाय की मानसिक संरचना एक खास ढांचे में ढली होती है। ज्यादातर ये ढांचे बहुत सख्त होते हैं। खासकर नए धर्मों में, जिनकी जड़े समय की गहराइयों में बहुत नहीं हैं। जैसे इस्लाम जेहाद के प्रति अपने मानने वालों में एक खास किस्म का जुनून भरता है। अपने मकसद के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। हूरों से रौनकदार जन्नत के ख्वाब के आगे वे बेहिसाब खून बहाते हुए खुद के भी चिथड़े उड़ा डालते हैं। जिंदगी की सारी दौलत और चमकदमक को एक दिन अचानक छोड़कर बिल्कुल भिक्षुओं जैसा जीवन जीने के लिए आगे बढ़ जाना क्या दूसरी अति नहीं है? ओशो ने इसे गांधी-विनोबा के सत्याग्रहों को भी एक प्रकार की हिंसा ही कहा। दूसरों को मारे तो हिंसा और खुद को मारे तो भी हिंसा। वह अहिंसा कैसे हो सकती है? अब यह बहस हमें एक अलग दिशा में ले जा सकती है। बइसलिए इस्लाम की सख्ती और तीर्थंकरों की करुणा बहस का दिलचस्प विषय तो है। मगर उस सुबह प्यारी इभ्या के चेहरे को अपने जेहन में महफूज कर मैं कपासन से रवाना हुआ।


 हाईवे पर आकर पता चला कि नाथद्वारा और कुंभलगढ़ ज्यादा दूर नहीं हैं। मेरे पास कुछ घंटे थे। सबसे पहले दोपहर बारह के पहले ही पहुंचकर नाथद्वारा में श्रीनाथजी के दर्शन किए। मुझे लगा जैसे ठाकुरजी इंतजार ही कर रहे थे कि पंडित पांच साल तक देश भर में खूब घूमा। यहां क्यों नहीं आया? बहुत अच्छे से मैंने उन्हें अपनी आंखों में उतारा। उनका मूल स्थान ब्रज में है। गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा जहां से शुरू होती है, वहां जतीपुरा गांव में श्रीनाथजी का मूल स्थान है। दिल्ली के सात सौ साल के मुस्लिम शासनकाल में जब मुल्क में मंदिरों को कई-कई बार तोड़ गिराने और लूटने का मौसम बहार पर था, तब श्रीनाथजी को ब्रज से बचाकर यहां लाया गया था। इसलिए आज भी मान्यता है कि वे दिन में नाथद्वारा में होते हैं, शयन के लिए रात में जतीपुरा लौटते हैं। वहां मैं पहले जा चुका हूं। उनके शयन के राजसी इंतजाम होते हैं रोज। शाम ढलते ही अष्ट सखा कवियों की रचनाओं का शास्त्रीय गायन, छप्पन भोग, रोशनी, सुगंध और राधे-राधे की गूंज। ऊर्जा से भरी एक सुगंधित शाम मैं जती पुरा में वल्लभ संप्रदाय के इस पुराने मंदिर में बिता चुका था। आज उनके सामने नाथद्वारा में मौजूद था।

 मंदिर से निकला तो पहाड़ी रास्तों का रुख किया। रास्ता भटककर हम राजसमंद तक आ गए और वहां से कुछ लंबा रास्ता पकड़ा। यहां से करीब पचास किलोमीटर के पहाड़ी फासले पर कुंभलगढ़ का किला महाराणा प्रताप की जन्म स्थली है। अरावली की जटिल पहाड़ी श्रृंखला में एक बेहदी सुरक्षित चोटी पर इस किले को बनाया गया था। यह राजस्थान के दिलों पर राज करने वाले वीर और विद्वान राणाओं की चहलकदमी से सदियों तक आबाद रहा है। इन राणाओं ने अपनी इज्जत से समझौते नहीं किए। इनके महान वंशजों ने इसकी बड़ी कीमत भी चुकाई।
 सबसे ऊपर राणा कुंभा, जिनके राज में ऐसे 84 किले थे। 32 तो राणा ने ही बनवाए थे। उनकी आगे की पीढ़ी में राणा सांगा, जो बाबर से टकराए। उनकी बेटी रत्नावली भोपाल के पास रायसेन के एक युवराज को ब्याही थी। उनकी मौत के बाद चित्तौड़गढ़ के किले में हुए तीन इतिहास प्रसिद्ध जौहरों में से दूसरा बड़ा जौहर हुआ था। उनकी महारानी ने सैकड़ों दूसरी औरतों और लड़कियों के साथ एक साथ चिता में जलकर प्राण त्याग दिए थे। जीत के जोश से भरकर किलों में दाखिल होने वाले ताकतवर मुस्लिम सुलतानों और उनके बेरहम फौजियों के हाथ पड़कर जिंदगी भर की बेइज्जती और जलालत झेलने से अच्छा था कि खुद को जलती आग के हवाले किया जाए। चित्तौड़गढ़ लेकर चंदेरी तक का अतीत जौहरों में सैकड़ों बदनसीब औरतों की ऐसी बेहिसाब चीत्कारों से भरा हुआ है।

 कुंभलगढ़ की एक और शान मेवाड़ की आन-बान-शान के प्रबल प्रतीक महाराणा प्रताप, जिन्होंने अकबर के आगे घुटने टेकने से इंकार ही नहीं किया, मूंछों पर ताव देकर सीधे मुकाबले के लिए न्यौता दिया। अकबर के सेनापति जयपुर राजघराने के राजा मानसिंह और महाराणा प्रताप के नुकीले संवाद बड़े मशहूर हैं और सदियों बाद भी मेवाड़वालों का रक्त संचार अब तक बढ़ाते हैं।
 तीन दिन की इस यात्रा से भोपाल लाैटते हुए मेरा दिमाग तेजी से घूम रहा है। मैं सोच रहा हूं ब्रज से निकलने के बाद श्रीनाथजी किस मुश्किल से आकर यहां बसे होंगे। कुंभल और चित्ताैड़ ने क्या-क्या देखा-भोगा होगा?
और सबसे अहम इभ्या का आने वाला कल कैसा होगा?







कालसर्प योग

ये विवरण आप अपने विवेक से पढ़ें। ये महाराष्ट्र की मेरी यात्राओं के अनुभव हैं। मैं त्रयम्बकेश्वर का जिक्र कर रहा हूं , जो जन्मकुंडली और ज...