Thursday 10 August 2017

सरदार सरोवर का सार संक्षेप




 मेधा पाटकर को आखिर क्या चाहिए? तीन दशकों से यह औरत सड़कों पर है। हरसूद में 1989 की रैली के समय पहली बार मेधा का नाम देश के स्तर पर सुना गया था। वे इंदिरा सागर बांध की डूब में आ रहे गांवों के मसले को लेकर हरसूद आई थीं। एक बड़ी रैली में देश भर के हजारों सामाजिक कार्यकर्ताओं समेत कई जानी-मानी हस्तियां यहां जुटी थीं। इनमें मेनका गांधी, बाबा आमटे, सुंदरलाल बहुगुणा और वीसी शुक्ला वगैरह भी थे। हरसूद को हर हाल में बचाने के संकल्प की याद में एक विजय स्तंभ वहां स्थापित किया गया था। वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह तब इंडिया टुडे में थे। दो पेज की उनकी स्टोरी का हेडलाइन था-हार न मानने वालों का हौसला!
  बाद में मेधा बेसहारा विस्थापितों की आवाज बन गईं। विकास की परियोजनाओं की चपेट में आकर बेदखल हो रहे लोगों ने उन्हें हर कहीं अपने बीच पाया। शहरों की गंदी बस्तियों में रहकर अपनी आजीविका कमा रही आबादी हो या गांव-पहाड़ों में खदानों और हाईवे के निर्माण से उखड़ने वाले गुमनाम लोग। मेधा ऐसी हर जगह पर पहुंची, जहां मानवीय विस्थापन सरकार के अमानवीय तौर-तरीकों का शिकार बना। तीस साल से नर्मदा बचाओ आंदोलन उनकी पहचान ही बन गया। नर्मदा घाटी में बन रहे बांधों की श्रृंखला ने थोक के भाव में गांव और आबादी बेदखल की। हरसूद जैसी बड़ी बस्ती समेत करीब ढाई सौ गांव इंदिरा सागर में समा गए। निसरपुर जैसे कस्बे के साथ करीब 190 गांव सरदार सरोवर की डूब में हैं। एक बांध मध्यप्रदेश में है। दूसरा गुजरात में। मगर पूरी डूब मध्यप्रदेश की है। ये हजारों करोड़ रुपए की लागत के पावर प्रोजेक्ट हैं, जिनसे पैदा होने वाली बिजली और जलाशयों का पानी बेतहाशा बढ़ती आबादी के लिए बेहद जरूरी है। इनमें सरकारों की पूरी ताकतें लगी हैं। पार्टियां कोई भी हों। 
 मैं 2004 से इस मसले से लगातार जुड़ा हूं। हमने हरसूद को बहुत करीब से देखा। अब बड़वानी भी देख लिया। इस बीच मध्यप्रदेश में व्यवस्था परिवर्तन का नारा बुलंद करके सत्ता में आई बीजेपी की सरकारें ही रहीं। केंद्र में ज्यादा समय यूपीए का झुंड था, जिसे 2014 में नरेंद्र मोदी ने उलट दिया। एक राज्य के दो सौ-ढाई सौ गांवों का दो बार में दस साल के भीतर डूबना किसे कहते हैं? शायद ही किसी राज्य के हिस्से में ऐसी मुसीबत आई हो। बांध सरकार की जरूरत हैं, उससे ज्यादा जिद हैं। मगर इससे जुड़ा मानवीय विस्थापन का सवाल उनके लिए उतना ही मायने नहीं रखता। जबकि सबसे अधिक मानवीय संवेदना की दरकार रखने की जहां जरूरत थी, वहां सरकार की भ्रष्ट मशीनरी ने दोनों मौकों पर क्या किया?
 यह काम बहुत बेहतर ढंग से बहुत आसानी से हो सकता था। 2004 में इंदिरा सागर बांध के कारण जो हालात सामने आए थे, बेशक उसके लिए बहुत हद तक दिग्विजयसिंह जिम्मेदार थे, जिन्होंने दस साल सत्ता में रहकर भी वहां कुछ खास नहीं किया और जब बांध अपनी पूरी ऊंचाई पर बनकर खड़ा हुआ तब होश फाख्ता हुए नई मुख्यमंत्री उमा भारती के। मगर वे ज्यादा समय सत्ता में नहीं रहीं। थोड़े समय बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री रहे और फिर एकछत्र राज करने के लिए तकदीर ने शिवराजसिंह चौहान का दरवाजा खटखटाया। उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर 12 साल पूरे हुए। यह एक युग की अवधि है। 
 आज जो कुछ भी सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र में मचा है, उसके लिए बिल क्लिंटन, सद्दाम हुसैन या मुअम्मर गद्दाफी जिम्मेदार नहीं हो सकते। जब सरदार सरोवर के विस्थापितों को मुआवजे बट रहे थे, तब इंिदरा सागर के विस्थापन-पुनर्वास की नाकामी का स्वाद बखूबी चखा जा चुका था। पूरी सरकारी मशीनरी की क्षमता और कारनामे उजागर हो चुके थे। एक सबक सीखने के लिए 13 साल कम नहीं होते, बशर्ते मन में वाकई व्यवस्था परिवर्तन की गहरी चाह हो। चुनाव जीतना और बात है, मगर ऐसी कोई चाहत मध्यप्रदेश सरकार में कभी किसी मुद्दे पर दिखाई नहीं दी। वर्ना शिवराजसिंह चौहान चाहते तो सरदार सरोवर के विस्थापन और पुनर्वास को इसी 36 सौ करोड़ रुपए में दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मॉडल बना सकते थे। उन्हें पूरा काम अपने हाथ में रखना ही था। लगातार उन 88 स्थानों की मॉनीटरिंग करनी थी, जहां उनके अफसरों ने पुनर्वास के नाम पर 15 सौ करोड़ रुपए फूंके। जिस 900 करोड़ के स्पेशल पैकेज का तोहफा देने के बावजूद इस समय विस्थापितों की गालियां मिल रही हैं, यह रकम भी वहीं के विकास पर लगा देनी थी।
 सत्ता में आकर अपनों को कमाने के हजार मौके हैं। सिर्फ एक काम ईमानदारी से देश-दुनिया, राजनीतिक नेतृत्व और सरकारों के लिए नजीर बन जाए, इस सोच के साथ शिवराज अपने किसी भरोसेमंद बिल्डकॉन को ही यह जिम्मा दे देते कि निसरपुर समेत बाकी 88 स्थानों पर शानदार सुविधाओं से लैस टाउनशिप पूरी प्लानिंग से बनाई जाएं। बेहतर सड़कों के नेटवर्क से जुड़ी रिहाइशें, उनके कारोबारी कॉम्पलैक्स, बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल और संचार के साधन प्रदेश में सबसे उम्दा देते। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए) का मुख्यालय आखिरी विस्थापित परिवार के अपने गांव में रहने तक धार और बड़वानी से ही काम करता, भोपाल में नहीं। ग्राउंड पर हर महीने एक रिव्यू सीएम की काफी होती। एक निजी एजेंसी अलग से हरेक हरकत की मॉनीटरिंग करती। एक टाइमलाइन तय होती। फर्जी रजिस्ट्री जैसे कारनामे करने वालों को हमेशा के लिए नौकरी से निकालती तो एक पैसा भी दलाली या रिश्वत में खाने के पहले बाकी लोग हजार बार सोचते।
 प्रदेश के मुखिया की ऐसी सक्रिय और विजनरी पहल उनका कद कई गुना बढ़ा देती। इस पूरे काम में नर्मदा बचाओ आंदोलन से मेधा पाटकर और उनकी टीम को भी जोड़ती। सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस खेहर ने मेधा से कहा कि आप बताइए आप विस्थापितों के लिए क्या चाहती हैं, हम उससे ज्यादा के आदेश देने को तैयार हैं। यही अमृत वचन शिवराजसिंह चौहान दस साल पहले बोल देते तो बांध पर 17 मीटर के गेट लगने के पहले यह झमेला खड़ा नहीं होता। गांव के लोग खुशी-खुशी अपने नए घरों में शिफ्ट हो गए होते। पहले से शानदार व्यवस्थित और सुविधा संपन्न घरों को कौन ठुकराता, जहां अगले ही दिन से उनके पास करने को काम-धंधे होते, बच्चों को पहले से अच्छे स्कूल, अस्पताल मिलते?  
 तब शिवराज सरकार प्रधानमंंत्री नरेंद्र मोदी को बुलाकर विकास का पर्व बड़वानी में मनाती। मैं दावे से कह रहा हूं कि यह संभव हो सकता था। अगर आंदोलन ही नर्मदा बचाओ का पैदाइशी मकसद है तो सरदार सरोवर के गांव ही मेधा और उनकी टीम को बाहर का रास्ता बता देते। कौन पहले से अच्छे घरों और पहले से अच्छे कारोबारी हालात में जाकर रहना नहीं चाहेगा। सिर्फ विजन चाहिए था। सख्ती चाहिए थी। अफसरशाही उसकी जगह पर होनी थी। ऐसा होता तो सरकार को बेशकीमती 13 साल गंवाने और 36 सौ करोड़ रुपए खर्च के बाद ऐसी लानतें न मिलतीं। यह हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व की आपराधिक भूल है, जिसका खामियाजा सरदार सराेवर के 193 गांवों के करीब 40 हजार परिवार इस वक्त भुगत रहे हैं!
 12 दिन के धरने के दौरान भी सरकार ने अपने कारिंदों पर ही भरोसा किया। मुख्यमंत्री एसपी-कलेक्टर को मेधा को मनाने के लिए भेजते रहे। फिर कोई भय्यूजी महाराज प्रकट हुए। मेरा मेधा को कोई समर्थन नहीं है। न किसी किस्म के विरोध में कोई रुचि है। मेधा और उनकी टीम पर यह तोहमतें लगती रही हैं कि वे विदेशों से आए पैसे के बूते पर हमारे विकास के प्रोजेक्ट के खिलाफ माहौल बनाती हैं। अगर ऐसा है तो भी क्या दिक्कत थी। अभी कश्मीर में विदेशी फंड की दम पर आतंक फैलाने वाले कई दगाबाज गिलानी-फिलानी अंदर हुए हैं। सरकार के पास अगर ऐसे कोई सबूत थे तो मेधा पाटकर की जगह चिखल्दा गांव के धरने पर नहीं, तिहाड़ में होनी चाहिए थी। सिरदर्द पैदा करने के लिए उन्हें क्यों खुला छोड़ा हुआ है?
  नर्मदा बचाओ आंदाेलन आज का नहीं है। तीस साल से ज्यादा हो गए घाटी में इस आवाज को गंूजते। बड़े बांधों के औचित्य की बहस बहुत बड़ी है लेकिन एनबीए की आवाज विस्थापन के तौर-तरीकों को लेकर ही गूंजती रही। उन्होंने काश्मीरी नौजवानों की तरह भारत के माथे पर पत्थर नहीं बरसाए, वे नक्सलियों की तरह भी पेश नहीं आए। वे अदालतों में गए। आरटीआई के जरिए असलियतें उजागर कीं। खंडवा, बड़वानी, भोपाल और दिल्ली में धरने-रैली करते रहे। नारे लगाते रहे। ज्ञापन सौंपते रहे। याचिकाएं बढ़ाते रहे। शिकायतें करते रहे।
 सिंहस्थ के समय तूफान आया तो मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान बांधवगढ़ नेशनल पार्क में अपने परिवार को छोड़कर रात में उज्जैन पहुंचे और परेशानहाल श्रद्धालुओं को अपने हाथों से चाय पिलाई। उनकी रहमदिली और सहजता के कायल कई हैं। भोपाल में ज्यादा बारिश ने जीना हराम किया तो सुबह सीएम पार्षदों से आगे निचली बस्तियों में दौड़ते दिखे। दस साल में जब भी फसलें चौपट हुईं शिवराज का हेलीकॉप्टर अनगिनत खेतों में उतरा। ऐसे हर स्पॉट से अखबारों में एक हेडलाइन रोचक जुमला ही बन गया, शिवराज ने कहा-मैं हूं न! गांवों के चौकीदारों से लेकर शहरों में काम करने वाली बाइयों तक शायद ही कोई तबका बचा होगा, जिसकी गुहार अपने सरकारी बंगले में पंचायत बुलाकर न सुनी हो। प्रमोशन में आरक्षण के लिए इतने प्रतिबद्ध दिखे कि सुप्रीम कोर्ट में महंगे वकील खड़े कर दिए।
 सरदार सरोवर बांध के 40 हजार विस्थापित परिवार किस हाल में हैं, वहां अफसर क्या कर रहे हैं, पुनर्वास स्थल रहने लायक हैं या नहीं, लोग वहां क्यों नहीं जा रहे, उनके कारोबार डूब तो नहीं रहे, वे कमाएंगे क्या, उनके मन में क्या है, सरकार सब कुछ अच्छा ही कर रही है तो वे नाराज क्यों हैं, हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट के चक्कर क्यों लगा रहे हैं, यह पूछने न वे गए और न ही उनका कोई काबिल मंत्री। वहां मेधा पाटकर गईं। 12 दिन धरने के बाद एक शाम बंदूकों-लाठियों से लैस तीन हजार पुलिस वालों ने उन्हें जबरन उठा लिया। दो दिन इंदौर के बांबे हास्पिटल में रखकर उन्हें धार जेल भेज दिया गया। डेढ़ महीने पहले किसान आंदोलन ने सरकार के 13 सालों के किए कराए पर पानी फेर दिया था। अब विस्थापितों की सुर्खियां रही-सही कसर पूरा कर रही हैं। मामला हाथ से निकल चुका है।
 2004 में हरसूद के हाल पर लिखी मेरी किताब 2005 में छपकर आई थी। इसके दस साल बाद एक फेलोशिप के तहत मुझे इंदिरा सागर बांध के इलाके में फिर जाने का मौका मिला। करीब एक साल तक मैंने हरसूद समेत खंडवा, हरदा और देवास जिले के कई पुनर्वास स्थल देखे और उन परिवारों में वापस गया, जो 2004 में बेदखल हुए थे। बहुत संतुलित भाषा का प्रयोग करते हुए मैं कहना चाहूंगा कि सरकार में आने के पहले हमारे ज्यादातर नेताओं को पता ही नहीं है कि उन्हें जनता के लिए करना क्या है? पार्टियों में उनकी ऐसी कोई ट्रेनिंग नहीं है कि ऐसे विकट हालातों में वे किस विजन और नीयत से पेश आएं। वे पार्टी में छोटे-मोटे पदों से होकर पंच-पार्षद बनते हुए विधायक और सांसदों के टिकट तक पहुंचते हैं। फिर तमाम तीन-तिकड़में और तकदीर उन्हें एक शपथ तक ले आती है।
 हमने देखा है कि नेताओं की इस राजनीतिक यात्रा में सफेद झूठ के साथ खरा पैसा पानी की तरह बहता है, जिसे जुटाने के लिए एक के बाद दूसरे और बड़े पद जरूरी होते हैं। जितना बड़ा पद, उतना बड़ा झपट्‌टा। सरकार में आने या पद के पाने का एकसूत्रीय कार्यक्रम बेहिसाब दौलत कमाना भर है। इसलिए सरकार में आते ही ये नेता पहले से सत्ता का मजा ले रहे उन घाघ अफसरों के चंगुल में जा फंसते हैं, जो एक बड़ी परीक्षा पास करके 30-35 सालों के लिए सिस्टम की छाती पर सवार होते हैं। ऐसी अफसरशाही के सहारे मूर्ख और लालची नेताओं को सत्ता का अवसर जन्नत जैसे अहसास में ले जाता है, जहां पीड़ित जनता की कराह भी वे अफसरों के मुंह से मधुर गीत के रूप में सुनते हैं। बड़ा पद उनके लिए दूल्हे के रूप में घोड़ी की सवारी जैसा है, जिस पर वे अगले पांच साल तक सवार रहेंगे। भाषण देंगे। घोषणाएं करेंगे। शिलान्यास, उदघाटनों की शोभा बढ़ाएंगे। किसी ठोस नतीजे या बदलाव की उम्मीद बेकार है, क्योंकि ज्यादातर के पास वैसा विजन ही नहीं है। नीयत भी नहीं है।
 मेरे मध्यप्रदेश में यही व्यापमं की सीख है, यही शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन के खस्ताहाल इन्फ्रास्ट्रक्चर की इबारत है, यही बेमौत मर रहे किसानों से मिला सबक है और यही अब सरदार सरोवर का सार संक्षेप है!


















Tuesday 8 August 2017

मेधा पाटकर का धरना, अमित शाह का आगमन और लोकप्रिय मामा!

ये लेखक के अपने विचार हैं- 
सियासत में अपनी कतई दिलचस्पी नहीं है। सुना ही है कि अमित शाह थोड़े दिन बाद भोपाल आ रहे हैं। वे तीन दिन राजधानी की शोभा बढ़ाएंगे। वे कई राज्यों में पार्टी और सरकारों की हालत पर बात करने के बाद अब मध्यप्रदेश का रुख कर रहे हैं। वे पार्टी कार्यालय में ही रहेंगे। किसी ने बताया कि एक राज्य के मुख्यमंत्री को उनके अफसरों ने तीन दिन प्रजेंटेशन देना सिखाया ताकि वे अपनी सरकार के प्रदर्शन को शाह के सामने स्क्रीन पर आंकड़ों, ग्राफ और चार्ट के माध्यम से समझा सकें। उनके अफसरों ने अपने बॉस के बेहतर प्रदर्शन के लिए खासी मशक्कत की।
 अमित शाह जब भोपाल आएंगे तो शायद उन्हें याद आए कि यहां पिछले दिनों किसान आंदोलन का जानलेवा शोर कितना कर्कश था। लाखों टन प्याज प्रबंधन का अफसरों के लिए मुनाफेदार मॉडल भी दूसरों को बताने की एक मिसाल हो सकता है। इनके अलावा कुछ ताजा हेडलाइन भी होंगी। जैसे-पुलिस ने मेधा पाटकर को अनशन से उठाया। उनके आने में दस दिन बीच में हैं। तब तक सरदार सरोवर के गांवों में क्या होगा, आज कहना कठिन है। इस सिचुएशन में मैं कहना चाहूंगा कि मध्यप्रदेश के अफसरों ने यहां के बच्चों के लोकप्रिय मामा के अच्छे प्रदर्शन के लिए कुछ अलग तरीके की तैयारी की हुई है। अपने काबिल अफसरों के प्रति शिवराज के भरोसे की दाद देनी होगी।
 मेधा पाटकर को अरेस्ट करने की खबर जब मिली, तब मैं पिछले 13 साल बाद हुए मध्यप्रदेश के दूसरे बड़े विस्थापन के इलाके से लौटा ही हूं। करीब एक हफ्ता वहां बिताया। मुझे 2004 का हरसूद याद आ गया। जैसा हरसूद, वैसा निसरपुर। हरसूद इंदिरा सागर डैम की डूब में सबसे आखिर में आया इकलौता शहर था। निसरपुर सरदार सरोवर बांध की डूब में व एक आखिर कोने में सबसे बड़ा कस्बा है। टीवी चैनल के समय साल भर तक हम हरसूद को लगातार कवर किए थे। एक किताब भी आई थी। तब भी सरकार बीजेपी की ही थी। नई सरकार की मुख्यमंत्री उमा भारती थीं। उनकी दम से बनी सरकार को एक साल भी नहीं हुआ था कि इंदिरा सागर बांध की लहरें हरसूद से टकराने लगीं। उमाजी के चेहरे से जीत की खुशी के रंग फीके भी नहीं पड़े थे कि सामने लंबा-चौड़ा बांध था। हरसूद खत्म हो गया। उसके खत्म होते-होते तिरंगे में तूफान आया। उमा भारती बह गईं। सत्ता से भी, संगठन से भी। अब निसरपुर में खड़े होकर देखें तो उस पार गुजरात में सरदार सामने है-सरदार सरोवर। 17 मीटर के गेट उस जल सिंह के माथे का चमचमाता ताज हैं। यहां तक पानी आने का मतलब निसरपुर तक डूब।


 नर्मदा बचाओ आंदोलन का कहना है कि 40 हजार प्रभावित परिवार हैं। सरकार कहती है कि भूल जाओ, आप 38 हजार थे। फिर नए सर्वे में 23 हजार ही रह गए थे। अब हमारे पास सिर्फ 7 हजार ऐसे हैं, जिनका पुनर्वास करना है। ये आंकड़ों का चक्कर दिलचस्प है। 1992 में पहली बार सर्वे हुआ कि सरदार सरोवर में कितने गांव और लोग डूबेंगे? तब न सरदार सरोवर बांध था और न इसका पेट भरने वाला इंदिरा सागर बांध था। जब दोनांे बन चुके तब 2008 में एक नया सर्वे नर्मदा कंट्रोल अथॉरिटी ने कराया। पहले सर्वे में 193 गांवों के 38 हजार परिवार डूब में थे। दूसरे में 23 हजार बचे तो बाकी 15 हजार को नमस्कार करते हुए शुभ सूचना दी गई-श्रीमान आप यहीं रहिए। आप नहीं डूब रहे। मुबारक हो।
 गांव वालों के लिए नहीं डूबने की यह खबर गुड न्यूज क्यों नहीं थी, यह जानने के लिए निसरपुर में ही आइए। 28 परिवार हैं। पहले पूरे डूब में थे। फिर 365 परिवारों को डूब में नहीं माना गया। अब ये डूब से बाहर हुए लोग कह रहे हैं कि अब चारों तरफ से पानी से घिरकर कैसे काम चलाएंगे। अफसरों ने खुश होकर बताया कि नाव से आ-जा सकते हैं। रोचक बात यह कि बचे हुए 15 हजार लोग भी मुआवजा पा चुके हैं। कोई बात नहीं पैसा तो हाथ का मैल है। जनता का ही है। यह रकम अपने पास रखिए। बस शुक्र मनाइए कि आप डूबने से बच गए! अब इनकी लड़ाई यह है कि हमें डूब में मानिए।
  मुआवजे से ज्यादा अहम पुनर्वास का मामला है। मुआवजा तो उसका एक मामूली हिस्सा है। तो डेढ़ दशक पहले मिला मुआवजा यहां-वहां खर्च हो गया। कुछ लोगों ने ही दूसरे कारोबार में लगाया। कम लोग ही उन 2500 प्लाटों पर रहने गए, जो उन्हें पुनर्वास के लिए सरकार ने दिए थे। कपास के लिए मिट्‌टी की मोटी परत वाले खेतों को अधिगृहीत कर मकान बनाने के लिए टुकड़े दे दिए। खेतों से तीन फुट ऊंची संपर्क सड़कें निकाल दीं, जो अब जर्जर हो चुकी हैं। कई जगह खाली खंभे थे, जहां से बिजली आनी थी। न लोग आए, न ये पुनर्वास जैसे स्थल बन सके। ऐसे 88 ठिकानों को बनाने में सरकारी कारिंदों ने 15 सौ करोड़ रुपए खर्च किए। इन जगहों को दूर से देखकर भी अंदाजा लगा सकते हैं कि पैसे की किस तरह बंदरबांट हुई होगी। मुआवजा समेत सारे भुगतान 36 सौ करोड़ के हैं। गुजरात को पानी और मध्यप्रदेश को बिजली का बड़ा हिस्सा देने को तैयार सरदार सरोवर बांध को सरहद मानें तो सरहद के दोनों तरफ बीजेपी का डंका बज रहा है।

 यहां की बीजेपी के राज में निसरपुर हरसूद पार्ट-2 ही है। अमित शाह की आमद के पहले बड़ा सवाल यह है कि सरकार ने 13 साल में क्या सबक सीखा? दूसरा बड़ा विस्थापन हरसूद से ढाई सौ किलोमीटर के फासले पर इसी नर्मदा के एक छोर पर होने वाला था। तो अफसरों ने क्या सबक लिया था? वे एक बार फिर बुरी तरह नाकाम हुए हैं और यह झमेला सरकार की झोली में डालकर मौज में हैं। हरसूद में 2004 जून में मेधा सिर्फ दौरे पर ही आईं थी। धरना नहीं दिया था। आलोक अग्रवाल जो मोर्चा संभाले थे। इस विस्थापन में जनसंघर्ष के इस आईआईटी पास जिद्दी सिपाही का किरदार भी बदला हुआ है। वे अब आम आदमी पार्टी के नेता हैं। इस बीच वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जमीन पर अंतहीन संघर्ष करके कुछ हासिल नहीं होने वाला। सीधे राजनीति में आकर ही कुछ बदलाव किए जा सकते हैं। अब वे दिल्ली के चक्रव्यूह में फंसे अति उत्साही केजरीवाल की सेना के एक जमीनी सूबेदार हैं। विस्थापितों के पुराने जोड़ीदार आलोक सरदार सरोवर के प्रभावित इलाके में दौरा करने गए। धरने पर मेधा थीं यहां।
 2017 के मध्यप्रदेश के मीडिया में इस विस्थापन का शोर 2004 के हरसूद जैसा नहीं है। हालांकि चैनल और अखबार पहले से ज्यादा हैं। सहारा प्रणाम कहते हुए बताना चाहूंगा कि तब मैंने सहारा समय के लिए हरसूद कवर किया था। तीन कैमरा यूनिटों में दिल्ली से भुवनेश सेंगर और खंडवा से प्रमोद सिन्हा के साथ मैं भी था। वह देश का एक चर्चित कवरेज था। टीवी के लाइव प्रसारणों से हरसूद एक डिसास्टर टूरिज्म डेस्टीनेशन बन गया था। तीन मंत्री और छह पीएस उमा भारती ने वहां तैनात कर दिए थे। ताबड़तोड़ इंतजामों ने कुछ मामूली सी राहत हरसूद को डूबने के पहले दे दी थी।

 शिवराज ने तीन हजार पुलिस वालों के साथ कलेक्टर-एसपी को भेजकर मामला निपटाने कोशिश की। वे काफी टेक्नोफ्रेंडली हैं सो ट्वीट पर मेधा के प्रति सहानुभूति जाहिर करते रहे। मेधा ने उनके दोनों कारिंदों को यह कहकर विदा किया कि ट्वीट से संवाद ऐसे गंभीर मसले पर समझ के परे है। सामने आकर बातचीत कीजिए। उसके लिए धरना खत्म करने की क्या जरूरत है। बातचीत हाे सकती है। एक हाई पावर कमेटी बना दीजिए। शर्तें तय कीजिए। मेधा का राष्ट्र के नाम संदेश भोपाल आया। इधर श्यामला हिल्स की भृकुटि पर बल पड़े और उधर कलेक्टर-एसपी को ताव आ गया। गांव वालों से एक जोरदार मुठभेड़ के बाद ही वे मेधा को उठा सके। रात के सवा दस बजे वाट्सएप से मुझे पता चलाब कि मेधा को इंदौर के बांबे हास्पिटल ले जाया जा रहा है। कुल 12 लोग मंच से उठाए थे। कुछ बड़वानी और धार भेज दिए। एक का पता नहीं। पुलिस वाले छह को पहले ही गांव में टपकाते हुए निकले थे, जिन्हें बाद में उठा लिया गया।
 मेधा के जाते ही चिखल्दा की बिजली गुम है। इंटरनेट भी काम नहीं कर रहा। हरसूद अपने सामने बीती हर घड़ी के साथ बिखरता गया था। मगर जब हम वहां गए थे तब वहां जिंदगी रोज जैसी आम चहल-पहल से भरी थी। सिर्फ तीन हफ्तों के भीतर यह शहर उजड़ना शुरू हो गया था। 2004 का वह भारी अफरातफरी और परेशानी से भरपूर मानसून था। हरसूद समय की एक कड़वी याद बनकर मेरी किताब में सिमट गया। मैं अब रिपोर्टिंग से मुक्त हूं। भारत की यात्राओं की पूर्णाहुति किए ढाई साल गुजर गए। मगर नियति मुझे एक बार फिर इंसानी बेदखली के दूसरे ठिकाने पर लेकर गई। मैं दो दिन पहले निसरपुर में हरसूद जैसी ही रौनक देखकर आया हूं। वैसा ही हरा-भरा बाजार। दिन में भूख लगी, होटल-ढाबे हैं नहीं सो एक पाटीदार के यहां भोजन किया। उनकी पंद्रह साल की मुश्किलें हर निवाले के साथ सुनीं। कुछ कह नहीं सकते, शायद उन पाटीदार के पुश्तैनी घर के टूटकर डूबने के पहले हम उनके आखिरी मेहमान साबित न हों!
 मैंने वहां खापरखेड़ा के टीलों में ताकझांक की, जहां दो-ढाई हजार साल पुराने एक सलीके से बसे शहर के अवशेष अभी पूरी तरह सामने आ ही नहीं पाए थे। यह जगह नर्मदा के उथले प्रवाह वाली जगह पर सोच-समझकर बसाई गई थी। यहां से हर मौसम में नदी के दोनों किनारों से कारोबार मुमकिन था। उत्तर से दक्षिण के एक रास्ते में यह एक प्रमुख कारोबारी शहर था। खुदाई में ऐसे सबूत मिले, जिससे पता चला कि यहां का सीवेज सीधा नदी में नहीं जाता था। उन्होंने शहर के चारों कोनों पर बड़े-बड़े कुएं खुदवाए थे। सारा सीवेज इनमें फिल्टर होकर ही नदी की तरफ जाता था। जानकारों का कहना है कि इस काम को करने के लिए वहां के राजाओं ने तब कोई नदी की यात्रा वगैरह निकाले बगैर यह सब कर दिखाया था। यहां मिट्‌टी के बर्तनों, खिलौनाें और सजावट के सामानों का बड़ा कारोबार था। ऐसा अनुमान है कि मिट्‌टी का बड़ा उद्योग यहां था और ये सामान यहां से बनकर सब तरफ जाते थे। खापर यहां पकी हुई मिट्‌टी को कहते हैं। अतीत में एक बार न जाने क्यों उजड़कर टीलों में दफन होने के बाद बचा-खुचा यह पुराना गांव खापरखेड़ा एक बार फिर आखिरी सांसें ले रहा है।

 12 सौ आबादी के जिस चिखल्दा गांव में मेधा धरने पर रहीं, वह रियासत के दौर में चार रियासतों की सीमा चौकी था। होलकर, सिंधिया, पवार और स्थानीय बड़वानी रियासत। तहसील के खंडहर सबसे पहले पानी में आएंगे। बगल में रंगापुता नीलकंठेश्वर महादेव का मंदिर परिसर भी जलसमाधि लेगा। गांव-गांव में गुस्सा है। 2007 तक बांध बनकर तैयार था। यूपीए सरकार के समय बांध पर गेट लगने का मसला ठंडे बस्ते में रहा। उन्हें क्या पड़ी थी कि मोदी के गुजरात की प्यास बुझाएं और शिवराज के मध्यप्रदेश को रोशन करें। 2014 में मोदी ने गांधीनगर से आकर दिल्ली में अपना सामान खोलने के पहले नर्मदा कंट्रोल अथॉरिटी को कंट्रोल में किया। बांध पर धूमधाम से गेट लगे। जब लग चुके तो मोदी के गुजरात से अलार्म बज गया। यह वहां के चुनावों का बिगुल था। इधर, चमचमाती नर्मदा सेवा यात्रा का पुण्य लाभ देने के लिए तैयार नर्मदा मैया की पुकार बड़वानी में सुनवाई दी। यात्रा और विस्थापन के बीच मंदसौर में किसानों की अर्थिंयां उठ चुकी हैं। यात्रा का फल देने के लिए नर्मदा शिवराज सरकार को बड़वानी बुलाएंगी, यह यात्रा के कल्पनाकारों ने सपने में भी सोचा होता तो वे अपने विजनरी बॉस को नर्मदा के आसपास कभी न फटकने को कहते।
 कई राज्यों में बीजेपी और उनकी सरकारों की खैरखबर लेते हुए आगे बढ़ रहे हैं अमित शाह। बिहार में बेहिसाब सियासी ताकत का पर्याय रहे लालू यादव को जिंदगी का सबसे यादगार झटका देते हुए पधार रहे हैं वे। साथ में गुजरात से राज्यसभा की तरफ ताक रहे अहमद पटेल का केस भी उनकी अदालत में पूरे दमखम से चला। बेंगलुरू में गुजरात के बंधक विधायकों को पनाह देने वाले ताकतवर मंत्री के यहां छापों की सुर्खियां बता रही हैं कि शाहों से पंगा लेना कमजाेरों का काम नहीं। किस्से यहां तक चले सोशल मीडिया पर कि इस्लामाबाद में अदालत से लतियाए जाने के बाद नवाज शरीफ के अलविदा कहते ही शाह अपने सिपहसालारों को लेकर पाकिस्तान का रुख कर चुके हैं ताकि सरहद पार बीजेपी की सरकार की संभावनाएं तलाश सकें। ऐसे जोक आसानी से पैदा नहीं होते। यह शाह की जबर्दस्त ताकत का ही अहसास कराते हैं। जोक मध्यप्रदेश में भी खूब चले। सीएम शिवराजसिंह चौहान ने एक मीटिंग में कुपित होकर कलेक्टरों को फटकारा कि काम नहीं करोगे तो उल्टा टांग दूंगा। जोक आया कि भोपाल में कमलापार्क के पुराने पेड़ से लटके एक चमगादड़ ने दूसरे से कहा अब कलेक्टर जैसा फील कर रहा हूं!


















कालसर्प योग

ये विवरण आप अपने विवेक से पढ़ें। ये महाराष्ट्र की मेरी यात्राओं के अनुभव हैं। मैं त्रयम्बकेश्वर का जिक्र कर रहा हूं , जो जन्मकुंडली और ज...