Sunday 5 June 2016

नईदुनिया: अब सिर्फ एक मास्ट हेड, एक टाइटल...

लोकमत समाचार के एडिटर और हमारे मित्र विकास मिश्र ने नईदुनिया के जन्मदिवस पर कल एक पोस्ट अपनी फेसबुक वॉल पर की है। देश भर के पुराने मित्रों ने अपने विचार रखे हैं। उस नईदुनिया के बारे में, जो अब हमारे बीच सिर्फ एक टाइटल के रूप में ही शेष है। वो दुनिया तो उजड़ चुकी है, जो हमारी यादों में बसी है, जिसमें हमारे निशान थे। अब वो सिर्फ एक साइन बोर्ड है। एक मास्ट हेड, जो किसी और की मिल्कियत है। उस शानदार दुर्ग की चौकियों पर अब कोई और ही पहरा दे रहा है।

जैसे हमें अपना बचपन लुभाता है और बालपन के उस निर्दोष संसार में हम हमेशा लौटना चाहते हैं, नईदुनिया मेरे लिए कुछ ऐसी ही अहमियत रखता है। वो 14 नवंबर 1994 का दिन था, जब दो नौजवान अभयजी की चयन प्रक्रिया से गुजरकर सीधे सिटी रिपोर्टिंग की टीम में दाखिल हुए थे। मैं रात को जल्दी निकलने के कारण शाम को दो घंटा फ्रंट पेज पर होता था। एक दिन मैं कुर्सी से उछल पड़ा, जब जयसिंह ठाकुर ने सेव-परमल की सांध्यकालीन दावत में कहा कि विजय इसी कुर्सी पर कभी प्रभाषजी बैठा करते थे। जयसिंह फ्रंट पेज के पुराने धुरंधर थे। नए साथियों से खूब घुलमिलकर रहते थे। मजाकिया भी थे। मुझे लगता है वह मजाक ही होगा। हालांकि दो घंटे बाद मैं सिटी रिपोर्टर की अपनी कुर्सी पर जाकर विराज जाता था। उस कुर्सी की तरफ श्रद्धा से देखते हुए।

 मैं यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता का कोर्स करके गया था, जहां हमें नईदुनिया के बारे में इस अंदाज में पढ़ाया गया था, जैसे वह पत्रकारिता का तक्षशिला या नालंदा विश्वविद्यालय हो। हम उसी भाव से वहां दाखिल हुए। करीब नौ साल बिताए। उन दिनों शहर में खेल प्रशाल के उद्घाटन् की तैयारियां थीं। दिसंबर 1994 में मानव संसाधन मंत्री अर्जुनसिंह और मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह ने एक जलसे में उस इनडोर स्टेडियम का लोकार्पण किया, जिसे उसी दिन अभयजी का नाम मिला-अभय प्रशाल। वह नईदुनिया का अभयजी का कालखंड था। नईदुनिया के लिए अपने वैभव का अंतिम दौर।
 पाठक दूसरे अखबारों के भी होते हैं मगर अकेला नईदुनिया था, लोग जिसके आदी थे। अखबार पढ़ने का एडिक्शन नईदुनिया ने पैदा किया था। अगर सुबह नईदुनिया नहीं पढ़ी तो दिन खाली लगता था। कुछ गलत छपा तो चिट्ठियों का जखीरा लगता था। राजेंद्र माथुर ने एक जगह लिखा है कि साल में करीब 60 हजार चिटि्ठयां पाठकों की आती थीं। पाठकों के साथ ऐसा जीवंत कनेक्ट! हम जिस नईदुनिया में दाखिल हुए, उसमें पुरानी पीढ़ी के श्रेष्ठ योगदान के ऊर्जा से भर देने वाले चर्चेे थे। राहुल बारपुते तब जीवित थे। रनवीर सक्सेना भी। कमान अभयजी के हाथ में आ चुकी थी।
 वह विरासत से फिसलन का भी दौर था, जब नईदुनिया मीडिया के कारोबार के लिहाज से आसमान में नई उड़ाने भरने का दम रखता था और ऐसी टीम उसके पास थी, तब वह अपनी पचास साल की संचित ऊर्जा इंदौर में उंडेल रहा था। वह एक ऐसे ठहरे हुए जहाज की शक्ल में इंदौर के बंदरगाह पर खड़ा था, जहां आप कितने ही साल गुजार लीजिए, रहेंगे वहीं के वहीं। इसलिए जिनमें जोखिम लेने का माद्दा था और काम की ललक थी, उन्हें एक दिन नईदुनिया की वह छत छोटी हो गई। वे अपनी नियति की तलाश में निकलते गए। जो कारीगर थे, उन्होंने नईदुनिया की सिमटती दुनिया में भी अपने लिए कुबेर की कथाएं रचीं। नईदुनिया डूब गया, वे अरबिंदों के अंतरिक्ष में अपनी चमकती कक्षाओं में प्रक्षेपित हो गए। वे उस बहती गंगा में डुबकी लगा रहे थे, जो आगे जाकर सूख जाने वाली थी। वे सब जल्दबाजी में थे।
 हम तब लाइब्रेरी की किताबों में पुरानी पीढ़ी के संपादकों की अनुभूति करते थे। सिटी की खबरें लिखते हुए संडे मेगजीन में लिखने के अगले विषयों पर विकासजी के साथ चर्चा करते थे। अभयजी अवसरों में कमी नहीं छोड़ते थे मगर उनके दायरे में कई और चीजें भी थीं। मुझे लगता है कि उनके बारे में निजी तौर पर भी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है। वह जन्म से प्रबंधन का हिस्सा थे, दिलचस्पियां उन्हें पत्रकारों के गोत्र के निकट रखती थीं, राजनीति उन्हें उलझाती थी। इस अजीब त्रिकोण में नईदुनिया उलझकर रह गया। वह अपनी दिशा ही तय नहीं कर पाया।
 अगर अभयजी सिर्फ प्रबंधन की शिखर भूमिका में नईदुनिया के फैलाव के कारोबारी प्लान करते तो क्या होता? अगर वे सिर्फ संपादक बनकर रहते और प्रबंधन कोई और देखता तो क्या होता? अगर वे राजनीति में सक्रिय रहकर अपनी कोई भूमिका इन दोनों से बाहर तय करते तो क्या होता? वे नईदुनिया की शतरंज पर एक साथ तीन रोल में बने रहे। नईदुनिया बाजी हार गया।
 नईदुनिया में दम था कि उसके देश की दस भाषाओं में आज 100 एडिशन होते। नेशनल, रीजनल न्यूज चैनलों की श्रृंखला होती। मेगजींस होतीं। शाम के टेबलाइड होते। वेबपोर्टल होते। इतनी साख उसके पास थी। मगर बदलते समय की जरूरतों से बेखबर, कारोबारी विजन की कमी और गलत लोगों को पहली कतार में रखने की संकुचित प्रवृत्ति ने तबाही के बीज बोए। जो भी नईदुनिया से निकला, भारी मन से गया। तरक्की पाकर गया, मगर भरे दिल से। वह उस पर्यावरण में काम करना चाहता था। मगर पर्यावरण बिगड़ा था। लोग निकलते गए। वह अपने शहर की सीमाओं में मस्त रहा।
 2012 में एक दिन बिकने की मनहूस खबर मिली। यह सिर्फ नईदुनिया का पतन नहीं था, वह हिंदी पत्रकारिता के एक भव्य दुर्ग का ढहना भी था, जिसे एक महान हैसियत में खड़ा करने के लिए एक पूरी पीढ़ी लगी थी। राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर के किस्से ऐसे सुने जाते थे, जैसे मुंबई में आरके स्टुडियो के कबाड़े में खड़ा होकर कोई राज कपूर, शैलेंद्र, हसरत और मुकेश की महफिलों की यादों में जाए।
 नईदुनिया के इस हश्र पर कुछ भी लिखा नहीं गया है। हम सब जिन्होंने कई साल वहां बिताए, कुछ निष्पक्ष विश्लेषण कर सकते हैं और करना चाहिए। निष्पक्ष इसलिए कि हमें अब नईदुनिया से कुछ नहीं चाहिए, क्योंकि अब वह सिर्फ एक मास्ट हेड है। एक साइन बोर्ड। हमने अपना सर्वश्रेष्ठ समय वहां बिताया है। अपने संघर्ष का समय। जब महीने की आखिरी तारीखों में फोन और बिजली के बिल के लिए आकाशवाणी से यदा-कदा मिलने वाले चेक बड़ा सहारा होते थे। मगर हम, प्रवीण शर्मा के शब्दों में पद्मश्री तुल्य, अपनी बाइलाइन में संसार के सब सुख महसूस करके धन्य हो जाते थे। और आज सब कुछ होने के बावजूद हमारे भीतर की वह पवित्र धन्यता लुप्त है।
(विकासजी आपने सही अवसर पर यह प्रसंग छेड़ा है। मनोहर भाटी किताब लिख रहे हैं। इंतजार रहेगा...)









Monday 30 May 2016

www.thelallantop.com पर एक अध्याय

जोधा-अकबर की जमीन पर एक शाही शादी, जब एक
और अकबर ने थामा अपनी जोधा का हाथ

तू मुझे कुबूल

मध्यप्रदेश में इंदौर के सोढ़ी परिवार में शादी की तैयारियों की जबर्दस्त हलचल थी। शहर के एक पुराने प्रतिष्ठित संयोगितागंज स्कूल की सेवानिवृत्त टीचर 71 वर्षीय प्रेमलता सोढ़ी मुझे खुश होकर सोने की वे चूडिय़ां दिखा रही थीं, जो वे चार दिन बाद जयपुर में होने वाली शादी में अपनी नातिन स्टेफी की कलाइयों में पहनाने वाली थीं। स्टेफी को घर में सब प्यार से गोला कहते आए थे। शादी के मौके के लिए बनी ऐसी चूडिय़ां मैंने पहली बार देखी थीं। इनकी डिजाइन गोला के दिमाग की उपज थी। इनमें कोई तड़क-भड़क, कारीगरी या बारीक काम नहीं था, जैसा कि शादियों वाले जेवरातों में होता है। एकदम सादी बनावट, सीधी, सपाट मगर वजनदार और बेहद खूबसूरत।

शादी की तैयारियां जितनी खास थीं, शादी उससे ज्यादा खास। गोला ने अपने लिए पसंद किया था अहमद को। मगर इस पसंद के खुलासे के बाद न तो घर में कोई कोहराम मचा, न मोहल्ले में हायतौबा हुई, न शहर में तनाव फैला और न ही पुलिस या बजरंग दल वाले आमने-सामने आए। इसलिए अखबारों के लिए भी यह कोई खबर नहीं थी। जिंदगी में सब कुछ सामान्य और अच्छा ही हो तो खबर काहे की?
दोनों परिवारों के रिश्ते कई साल पुराने थे और एक दूसरे के बारे में काफी कुछ जाना-समझा हुआ ही था। फिर भी मामला एक दूसरे से बिल्कुल अलहदा दो अलग मजहबों का था यानी उतना आसान भी नहीं था। समझाइश के एक संक्षिप्त दौर के बाद जब लगा कि इधर गोला और उधर अहमद दोनों ही आखिरी फैसला कर बैठे हैं तो दोनों के घरों में चर्चा इस बात पर जा टिकी कि शादी कैसी और कहां होनी चाहिए। दोनों परिवारों की दो टीमें इस मिशन में लगीं। दो-ढाई महीने की तलाश राजस्थान के जयपुर शहर में जाकर खत्म हुई, जहां आमेर के मशहूर किले के साए में दो शानदार लोकेशन तय की गईं। राजपूताने की पुरानी रवायतों के अहसास को जिंदा करने वाले दो खूबसूरत रिजॉर्ट।
इस खोज में लगे थे अहमद के पिता सलीम सिद्दीकी और गोला के मामू सरदार राजीवसिंह सोढ़ी। आमेर की लोकेशन तय होने के पहले उन्होंने कई शहरों की खाक छानी। गूगल पर सर्च करते रहे। कुछ पसंद आया तो फोन पर संपर्क किया। फोटो शेयर किए। जाकर खुद देखा। तसल्ली नहीं हुई तो नए सिरे से फिर ढूंढना शुरू किया। जब जयपुर पर मुहर लगी तो भावनगर के होटल व्यवसायी सलीम सिद्दीकी के भांजे नदीम भाई एक तजुर्बेकार इवेंट मैनेजर की तरह सामने आए। जलसे की हर आखिरी बारीकी को उन्होंने ही दुरुस्त किया।
यह एक गजब की शादी होने वाली थी, जिसमें दुल्हन को सजाने के लिए मेकप मैन मुंबई से फ्लाइट से आ रहा था। हाथी-घोड़ों के इंतजाम जयपुर से किए गए थे। एक ठंडी शाम म्युजिक से गुलजार करने के लिए दिल्ली की गायिका हिलसा आ रहीं थीं। मस्कट, लंदन और कराची से भी कुछ मेहमान तशरीफ ला रहे थे।

'मैंं गोला की शादी को हमेशा से ऐसा ही चाहती थीं। इसके लिए जयपुर से बेहतर जगह और कौन सी होती, जहां जोधा-अकबर की यादें रची-बसी हैं?' गोला की मां सीमा रेजी ने कहा, जो शादी की हर छोटी चीज को भी भव्य बनाने में जुटी थीं। बचपन से ही गोला की हर छोटी-बड़ी पसंद को पूरी तवज्जो के साथ पूरा किया गया था।
एक और खास बात। सुखद अंत को पहुंची इस प्रेम कहानी के दोनों खास किरदार जब पहली बार मिले, तब गोला बारहवीं क्लास में थी और अहमद नौंवी में। उम्र में गोला करीब ढाई साल बड़ी थीं। गोला ने बीबीए तक पढ़ाई की और एमबीए की तरफ बढ़ते कदम अचानक ही अहमद की तरफ मुड़ गए। छह फुट से ज्यादा ऊंचे, शर्मीले और अपने दायरे में मस्त रहने वाले अहमद स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद रियल इस्टेट के अपने पुश्तैनी कारोबार में वालिद का हाथ बटाने लगे थे। मतलब दोनों को दाल-रोटी की फिक्र कतई नहीं करनी थी। घर से भागने की नौबत तो थी ही नहीं।
टैरो कार्ड की जानी-मानी जानकार सीमाजी गहरी आध्यात्मिक ऊर्जा से सराबोर एक मजबूत इरादों वाली शख्सियत हैं। उनका हर शब्द उनके गहरे आत्मविश्वास का अहसास कराता है। वे जिद की पक्की हैं और गुस्सा आ जाए तो रहम करने वाले अल्लाह को ही याद कीजिए, जिसके साथ इबादत में कोई दूसरा शरीक नहीं है और जो ईमान वालों का हरदम ख्याल रखता है।
'पहली बार इस प्यार और शादी के फैसले की भनक लगी कैसे?' उनसे मेरा पहला सवाल यही था।
'भाई...' इस संबोधन पर जोर देकर वे हमेशा अपनी बात शुरू करतीं, 'एक दिन गोला घर से सी-ट्वेंटी वन मॉल जाने का कहकर निकली। थोड़ी देर बाद मुझे लगा कि कुछ गड़बड़ है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। मैंने फौरन फोन किया। पूछा, कहां हो? उसने जवाब दिया, मैक्डॉनल्ड में। मैंने तैश में आकर तुरंत लौटने का हुक्म दिया। बच्ची बिना देर किए आई। अब मेरा सवाल था, किसके साथ थीं? उसने मासूमियत से जवाब दिया, अहमद के साथ। थोड़ा खामोश रहकर धीमे स्वर में उसने आगे कहा, उसे चाहती हूं...यह सुनकर मैं सन्नाटे में आ गई।'
'भाई...' कुछ खोए रहने के बाद उन्होंने अपनी बात जारी रखी, 'मैं इस जवाब के लिए तैयार नहीं थी। सुनते ही मैंने अपने दोनों हाथ कानों पर रख लिए। गोला को कहा कि यह मुमकिन ही नहीं है। बेहतर होगा कि अभी इसी वक्त अपने दिल से यह ख्याल निकाल दो। हमारे बीच बहुत फर्क है। अहमद अभी बच्चा है। रिश्ते निभाना बच्चों का खेल नहीं है। फौरन संभल जाओ।'
अपनी परवरिश में गोला ने कभी इंकार नहीं सुना था, खासतौर पर अपनी मां से। अब जब उसने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा फैसला खुद ले लिया था तो यह पहला इंकार भारी पड़ा। उसी रात उसकी तबियत बिगड़ी। 'हमें यकीन नहीं आया कि दोनों बच्चे इस कदर एक-दूसरे से जुड़ गए थे।' सीमा ने कहा।
अहमद के अब्बू सलीम सिद्दीकी तब बेंगलुरू में थे, जब उन्हें अपने शहजादे के इस कारनामे का पता चला। वे बताते हैं, 'जहां तक मुझे याद है लंदन से मुझे मेरी बेटी सना ने यह बात बताई कि अहमद ने गोला को पसंद कर लिया है। मैं लौटकर सबसे पहले गोला से ही मिला। उसकी तबियत खराब थी। मैंने उससे एक ही सवाल किया, तुम क्या चाहती हो। उसका मासूम सा जवाब था, अहमद से रिश्ता। मैंने उसे एक मुस्लिम खानदान की चीजों को तफसील से समझाते हुए यह बताने की कोशिश की कि तुम्हारे लिए इस रिश्ते को निभाना आसान बिल्कुल नहीं होगा। फिर भी अगर तुम इस कुर्बानी के लिए तैयार हो तो इस रिश्ते की सबसे ज्यादा खुशी मुझे होगी। वह अपने फैसले पर अडिग थी।'
इधर शहजादे साहब की हालत भी कुछ ठीक नहीं थी। आज के दूसरे नौजवानों की तरह अहमद दोस्ती-यारी में बहुत भरोसा नहीं करते। उनके फ्रेंड सर्कल में इक्का-दुक्का दोस्त ही हैं। इसके उलट गोला उम्र में बड़ी, ज्यादा पढ़ी-लिखी, आजाद ख्याल और खुशमिजाज लड़की थी, जिसकी परवरिश एक खुले माहौल में हुई थी।
दोनों के बीच प्यार के बीज पड़े कैसे?
जयपुर के जलसे में अहमद ने चहककर बताया, 'हम एक बार बेंगलुरू से साथ लौटे थे। मैंने गोला को अलविदा कहा। घर आकर लगा कि पीछे कुछ छूट रहा है, जो नहीं छूटना चाहिए। यह गोला से दूर होने का ख्याल था। फिर हम बार-बार मिले। जब राज खुला तो हमारी अम्मी राजी नहीं थीं। पूना में मेरी बड़ी बहन हैं सदफ। मैंने उन्हें अपने मन की बात कही। सदफ ने अम्मी को समझाया। कहा, अहमद ने फैसला कर लिया है अम्मा अब आप भी बिसमिल्लाह करो।'
मगर अहमद की अम्मी इरफाना इतनी आसानी से राजी नहीं हुईं। मायूसी के आलम में अहमद ने एक दिन अम्मी को कह दिया कि मेरा सामान, मेरे मोबाइल सब रख लो। मैं कहीं निकल जाऊंगा। 'मैं नहीं जानता था कि कहां जाऊंगा। मैं कुछ भी कर सकता था। मगर गोला के बिना रह नहीं सकता था। मैंने उसे सिर्फ इसलिए पसंद नहीं किया कि वह खूबसूरत है। वह वाकई एक बहुत अच्छी और नेक लड़की है।' अहमद ने कुछ समझदार बनते हुए कहा।
सिद्दीकी गुजरात के कच्छ मूल के मेमन मुस्लिम हैं। मैंने कहीं मेमन मुस्लिमों बारे में किन्हीं अमीरुद्दीन नुजहत (1873) का एक संदर्भ पढ़ा था। इसमें बताया गया था कि सिंध के सामा राजाओं (1351-1522) के वक्त थट्टा के पास कई हिंदू परिवारों ने एक प्रभावशाली शेख की सोहबत में इस्लाम कुबूल कर लिया था। उन्होंने इस नए समुदाय को मुआमिन कहा, जो समय के साथ मेमन कहलाए। इस्लाम कुबूल करने के कुछ समय बाद इनके कुछ जत्थे अरब सागर से होकर मौजूदा भारत के कच्छ और काठियाबाड़ इलाके में आ गए। आज मेमन समुदाय अपनी तीन तरह की इलाकाई पहचान के साथ सामने है- कच्छी मेमन, काठियाबाड़ी मेमन और सिंधी मेमन।
एक और मान्यता के अनुसार 1422 में 700 हिंदू परिवारों के 6178 लोगों ने सैयद यूसुफुद्दीन कादरी के प्रभाव में इस्लाम कुबूल किया था। यह घटना सिंध के थट्टा की है। यही लोग मुस्लिमों में अपनी अलग पहचान के साथ मेमन कहलाए। एक तीसरी जानकारी भी दिलचस्प है। इसके अनुसार मेमन और खोजा मुस्लिम मूलत: लोहाना हैं, जो कश्मीर में राज करते थे। लोहाना लोहार राना का संक्षिप्त नाम है। इन्होंने 1003 से 1338 के बीच कश्मीर में राज किया था। मगर बड़े पैमाने पर हुए धर्मांतरण में इनमें से कुछ सिंध और गुजरात में बिखर गए। इन्हें आज भी इन इलाकों में सिंधी लोहाना और गुजराती लोहाना कहा जाता है। लोहाना मूल के जो हिंदू इस्लाम की सुन्नी विचारधारा में गए वे मेमन हुए। जिन्होंने शिया मत को अपनाया, वे खोजा मुस्लिम कहलाए। इनके नामों में हिंदू अवशेष अब तक बाकी रहे हैं। मसलन, मोहम्मद अली जिन्ना को ही लीजिए। उनके पिता का नाम था जिन्ना भाई पूंजा। दादा का नाम-पूंजा गोकुलदास मेघजी। ये काठियाबाड़ के भाटिया हिंदू थे।
बहरहाल, सलीम सिद्दीकी बताते हैं कि उनके दादा 1917 में काठियावाड़ में जागीरदार हुआ करते थे। उनकी मौत के बाद उनके पिता हाजी हबीब सिद्दीकी इंदौर चले आए। यह 1947 के आसपास की बात है। उन्होंने सबसे पहले यहां लिबर्टी शू हाउस में नौकरी की। उधर दादी की देखभाल किन्हीं इब्राहिम नाम के शख्स ने संभाली। बाद में इब्राहिम भी इंदौर चले आए। हबीब और इब्राहिम के बीच रिश्ते काफी गहरे थे। कई सालों तक किसी को यह पता नहीं था कि वे दोनों सगे भाई नहीं हैं। हबीब ने उन्हें एक भाई की हैसियत से ही अपने साथ रखा। अपनी संपत्ति का हिस्सेदार बनाया। 'वालिद ने हम लोगों से पूछा कि इस बटवारे में हमें कोई आपत्ति तो नहीं है? भला हमें क्या मुश्किल हो सकती थी। वे तो हमारे काका ही थे।' सलीम भाई ने कहा।
अहमद और स्टेफी का मामला थोड़ी समझाइश, चंद सलाहें और कुछ नानुकर के साथ रिश्ते को पक्का करने की खानापूर्ति तक आ गया। सब कुछ एक महीने से भी कम वक्त में। इसका असर किसी तेज दवा की तरह हुआ। गोला की बिगड़ी तबियत सुधरी और अहमद के मुरझाए चेहरे पर रौनक वापस आई।
पेशेवर या घरेलू फैसलों में सबसे पहले थोड़ा सोच-विचार को तरजीह देने वाले स्टेफी के मामू राजीव की राय थी कि रिश्ते पर मुहर लगाकर गोला को एमबीए पूरा कराना चाहिए। किसी अच्छे इंस्टीट्यूट में भेजकर उसे पढ़ाई का आखिरी मौका देना चाहिए ताकि उसकी समझ और पुख्ता हो। देश में या विदेश में कहीं भी ताकि वह अपने पैरों पर खड़ी हो सके। मगर उनकी राय शहनाइयों की उस गूंज में कहीं खो गई, जो अभी बजना ही शुरू नहीं हुई थीं।
जाने-अनजाने में यह रिश्ता प्रेमलता सोढ़ी की चारदीवारी को असल मायनों में साझी संस्कृतियों के एक आदर्श हिंदुस्तानी परिवार की मिसाल भी बना रहा था। यह कहानी शुरू करने के लिए हमें कुछ देर के लिए 1960 के ब्लैक एंड व्हाइट दौर में जाना होगा, जब पक्के क्रिश्चियन परिवार की एक तालीमयाफ्ता लड़की और एक मस्त मिजाज सिख नौजवान ने भी कुछ ऐसा ही फैसला किया था। अब आप स्लो मोशन में परदे के एक तरफ कल्पना कीजिए प्रेमलता मसीह दौडऩा शुरू कर रही हैं और दूसरी तरफ से सरदार गुरजीत सिंह सोढ़ी बल्ले-बल्ले की मुद्रा में उनकी तरफ कदम बढ़ा रहे हैं...

परंपरागत भारतीय परिवारों में ऐसी हर कहानी में लड़की के सख्तमिजाज पिता तीखे सवालों के साथ ही नमूदार होते हैं। अब बारी उन्हीं की थी। प्रेमलता के पिता नंदलाल ठेकेदार राजस्थान मूल के थे, जो इंदौर आ बसे थे। वे अंग्रेजों के जमाने के एक नामी कॉन्टे्रक्टर थे, जिन्होंने यहां अब तक कायम छावनी चर्च और मिशन हॉस्पिटल जैसी मजबूत और बड़ी इमारतें बनाई थीं। वे एक ऐसे नौजवान को अपनी काबिल बेटी के लिए कैसे पसंद कर सकते थे, जिसके पास उन जैसे हाईप्रोफाइल कॉन्ट्रेक्टर की ऊंचे लोगों की ऊंची पसंद का काम नहीं था। मगर वे भूल रहे थे कि सामने सरदार है, जिसका फैसला असरदार है। यह शादी हुई। अब ठेकेदार साहब को नागवार गुजरे तो यह उनकी अपनी मुश्किल थी। इसमें सरदारजी कुछ नहीं कर सकते थे। वाहे गुरू का खालसा, वाहे गुरू की फतह।
प्रेमलता नेशनल एथलीट रही थीं। पंडित नेहरू के साथ 1959 की उनकी एक तस्वीर थी, जब वे उनसे दिल्ली में मिली थीं। वे याद करती हैं, 'शादी के दो साल बाद मेरे पिता का देहांत हो गया। वे मुझे अपने पैरों पर खड़ा होते हुए देखना चाहते थे। इसलिए मुझे फिजिकल एजूकेशन की ट्रेनिंग में अलवर भेजा। इस ट्रेनिंग का यह दूसरा ही बैच था, जिसमें देश भर से करीब पांच सौ युवा शामिल हुए थे। सरिस्का के महल में लड़कियों के रहने के इंतजाम थे। लड़कों को घुड़साल में ठहराया गया था। शाम ढलते ही टाइगरों की हलचल रहती थी उस इलाके में।'
गुरजीत के पिता अजमेरसिंह और मां कुलदीप कौर मूलत: पंजाब में डेराबसी अंबाला से थे, जो काम के बेहतर मौकों की तलाश में मेघनगर झाबुआ चले आए थे। उनकी बसें चलती थीं और बर्फ की एक फेक्टरी भी कायम की थी। गुरजीत के तीन भाई और दो बहनें थीं।
मगर सोढ़ी परिवार में नेशनल एथलीट और पढ़ी-लिखी प्रेमलता के लख-लख स्वागत की कोई तैयारियां नहीं थीं। वह कड़वी यादों से भरा एक कम्बख्त दौर था, जो जैसा भी था, बीत चुका था। उसे याद करना, गहरे जख्मों को कुरेदने जैसा था। फिर गुरजीत ने भी फिजिकल एजूकेशन की ट्रेनिंग ली। पहले झाबुआ में नौकरी की, फिर इंदौर नगर निगम में आ गए और अपनी नई गृहस्थी को सहेजने में लग गए। तीन बेटियों के बाद राजीव का जन्म हुआ।
प्रेमलता की मां एस्थर बहुत धार्मिक स्वभाव की दबदबे वाली महिला थीं। उन्होंने एक बार अपने दामाद को बुलाकर साफ कह दिया कि मिस्टर, बच्चों को किसी एक तरफ रखो। अपने सिख तौर-तरीकों में परवरिश करो या क्रिश्चियन परंपरा में ढालो। मिक्स मत करो।
सरदार साहब को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि कोई गुरुद्वारे में जाए या चर्च में। उनकी नजर में सारे रास्ते एक ही मंजिल की ओर जाते थे। गुरुद्वारे तो वे बचपन से ही जाते थे एक दिन बड़े मजे से रतलाम के एक चर्च में जाकर खड़े हो गए और बच्चों का नामकरण करा दिया। यही नहीं, अपनी दो बेटियों की शादी भी हंसी-खुशी के माहौल में चर्च में ही की। पता नहीं मिसेज एस्थर नंदलाल मसीह को सरदारजी का यह स्टाइल पसंद आया या नहीं।
मगर कहानी के अगले मोड़ पर इस परिवार की खुशहाली को कुदरत एक तगड़ा झटका देने वाली थी। 1978 में एक सड़क हादसे में सोढ़ी साहब का देहांत हो गया। उस घटना के 35 साल बाद आज भी प्रेमलता की आंखों के सामने एक-एक पल जिंदा हो जाता है। यह एक ऐसा खालीपन था, जिसे दुनिया की कोई खुशी कभी नहीं भर सकती थी मगर उनके सामने मासूम बच्चे थे। जिम्मेदारियों से उन्हें जीने की ताकत मिली। 'वे बहुत अच्छे क्रिकेटर थे। उन्हें बिशनसिंह बेदी के समय कई प्रमाणपत्र मिले थे। खुले हाथ से दूसरों की मदद करते थे। उनके जाने के बाद ही पता चला कि कम उम्र में उन्होंने खूब नेकियां बोईं थीं। मुझसे कहते थे कि शिक्षा का धन कभी खर्च नहीं होता। बच्चों को पढ़ाओ मगर उनसे पैसे मत लो। उन्होंने मुझे बुरे वक्त में भी कभी ट्यूशन नहीं करने दी। घर आने वाले गरीब बच्चों को उनके घर तक छोड़कर आते थे।'
सीमा राजीव से बड़ी थीं, जिन्हें घर में सब चिडिय़ा दीदी कहते। दीवार पर टंगी एक पुरानी तस्वीर में झांक रहे सोढ़ी साहब को सरसरी नजर से देखते हुए प्रेमलता याद करतीं, 'उनके बाद यही दो बच्चे मेरे पास थे। चिडिय़ा तब 17 साल की थी, जिसकी शादी रेजी के साथ आर्य समाज मंदिर में हुई। मेरे सारे दामाद मेरे लिए दोस्त की तरह थे। हमने कभी किसी चीज का बुरा नहीं माना। अपनी मर्जी कभी किसी पर नहीं लादी। और बबलू तो बचपन में ही बड़ा हो गया।'
अब पिक्चर में आते हैं बबलू यानी राजीव सोढ़ी। कॉलेज के दिनों में वे शहर के संगीत जगत में युवाओं के बीच एक जाना-माना नाम थे। उनका ग्रुप कई खास मौकों पर अपनी शानदार प्रस्तुतियों के लिए मशहूर था। उस उम्र में यह खुद हासिल की हुई सितारा हैसियत थी। उन्होंने खंडवा के एक राजपूत घराने की कन्या कुमारी सरिता सिंह को पसंद किया। ताली दोनों हाथों से बजी थी। इसलिए शादी के अंजाम तक पहुंची। बिल्कुल सन् 80 के दशक की फिल्मों के अमिताभ बच्चन और जैकी श्राफ जैसे हीरो की तरह। दम ठोककर। चुनौती पेशकर। मूंछों पर ताव देकर।
नायक का संकेत मिलते ही नायिका ने परिवार के पहरे की सात परतों को पार करके एक दिन अकेले ही घर से बाहर कदम रख दिए। एक राजपूत घराने में यह गुस्ताखी कभी माफी के काबिल नहीं थी कि उनके खानदान की लड़की ऐसा-वैसा कोई कदम उठा ले। बाद के सीन में घरेलू स्तर का तनाव है। दरवाजा खटखटाती पुलिस है। सीधे तरीके से मान जाने की समझाइशें हैं। चेतावनियां हैं। मगर सरदार के पुत्तर पर न इनका असर होना था, न हुआ। किला फतह हो चुका था और बाकायदा इसका ऐलान भी किया जा चुका था।
रिश्तों में जमी बर्फ को वक्त ने ही पिघलाया। यह और बात है कि इसमें बरसों लगे। प्रेमलता सोढ़ी के लिए उतार-चढ़ाव भरी जिंदगी के कई लंबे सूने और उजाड़ सालों का अच्छा-बुरा जैसा भी था, समय गुजर चुका था। संघर्ष के साए पीछे छूट गए थे। स्याह परछाइयां परदे से धुंधला चुकी थीं। बच्चे बड़े हो चुके थे। बच्चों के बच्चों की किलकारियों से घर आबाद थे।
चिडिय़ा दीदी के दो बच्चे हुए। स्टेफी यानी गोला, जिनकी शादी के लिए जयपुर जाने की तैयारियां जोरों पर थीं और गोला के बड़े भाई बिट्टू, जिनका असली नाम है-रॉबिन। ये महाशय ऋतिक रोशन के दौर के हैं। सिक्स पैक जनरेशन। अपने नाम के मुताबिक रॉबिन रौबदार व्यक्तित्व के धनी हैं, जिनकी कसी हुई कदकाठी जिम्नेजियम में हर दिन घंटों की पसीना बहाऊ मशक्कत के बाद ढलकर निकली दिखाई देती है। चेहरे पर सजी दाढ़ी उन्हें रफ-टफ रूप में पेश करती है। गले में टंगी सोने की भारी चेन उनकी दबंग हैसियत का इजहार करती है। हाथों पर बने भारीभरकम टैटू फैशनेबुल मिजाज की जोरदार नुमाइश करते हैं। इतना कुछ करने के बाद अगर यूं ही मार्केट में निकल लिए तो रॉबिन कैसे? इसलिए गाडिय़ों को अपने ही ढंग से रंगरोगन और डिजाइन करके शहर की सड़कों पर शाही अंदाज में निकलना उनका अगला शगल है।
वे अच्छी तरह जानते हैं कि आजकल लड़कियां नौजवानों पर यूं ही फिदा नहीं होतीं। इसके लिए जितनी कारीगरी जरूरी थी, रॉबिन ने शायद ही किसी कोने से कोई कसर छोड़ी हो। उनके मामले में कहना होगा कि कुछ कोशिशें कामयाब होने के लिए ही होती हैं। रॉबिन के रौब का असर श्रद्धा नाम की एक शुद्ध शाकाहारी, सुंदर, सुशील और सम्मानित जैन परिवार की भोली-भाली सी कन्या पर हुआ। इसलिए अरब देश में रेतीले टीलों से घिरे मस्कट नाम के शहर में अपने पिता के कारोबार से छुट्टी लेकर साल में दो-एक दफा हिंदुस्तान आने वाले रॉबिन का मन अब कुछ ज्यादा ही खानपान के लिए मशहूर इंदौर में लगने लगा। खासतौर से उस गली में जहां श्रद्धा रहती थीं।
ऐसे रिश्ते कतई आसान नहीं होते। इस रिश्ते को भी कठिनाइयों का एक अंतराल पार करना ही था। आखिर परंपरावादी जैन समाज के एक कारोबारी परिवार को मनाना बच्चों का काम बिल्कुल नहीं था। वे माने भी नहीं। तो मामू कब काम आते? 'काम आसान हो तो मजा ही क्या? और किसी से भी पूछ लीजिए सोढ़ी परिवार में आसान फाइलें कम ही आती हैं।' इस खेल के पुराने खिलाड़ी राजीव सोढ़ी शाम की पहली चुस्की लेते हुए जोरदार ठहाके के साथ कहते हैं।
रॉबिन की फाइल भी कुछ-कुछ पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता के अंदाज में अपने अंजाम पर पहुंची थी, जिसमें कन्या पक्ष से मुकाबले की हर बारीकी और दावपेंच पर जवाबी कार्रवाई के साथ असलहे का इंतजाम भी कनाडिय़ा रोड के हेड क्वार्टर में सोढ़ी सेना के कमांडर इन चीफ राजीव भाई को करना था।
आखिरकार रॉबिन-श्रद्धा की तेज रफ्तार फिल्म जैसी कहानी में पीछे छूटने वाले चंद किरदार थे-जैन परिवार के फिक्र में डूबे कुछ शख्स, जिन्हें अपनी बेटी की करतूत पर जितना रोना आया होगा, उतनी शर्म भी और उससे कई गुना ज्यादा गुस्सा। रिश्तों में जमी बर्फ यहां भी वक्त के साथ ही पिघलनी थी मगर हिंदी सिनेमा के तीर्थ मुंबई में यशराज फिल्म कंपनी वाले गवाह हैं कि प्रेमियों के इस गौरवशाली देश में दिल वाले हमेशा दुल्हनियां ले जाते ही रहे हैं। दुनिया की कोई ताकत उन्हें अब तक रोक नहीं पाई है। देवियो-सज्जनों, फिल्मों में भी नहीं और हकीकत हम देख ही रहे हैं। तो अलग-अलग दिशाओं से क्रिश्चियन, सिख, राजपूत और जैन परिवारों की टेढ़ी-मेढ़ी मुश्किल धाराओं को साथ लेते हुए इस मेगा फैमिली में गाजे-बाजे के साथ अब एक मुस्लिम परिवार की आहट सुनाई दे रही थी। शेरो-शायरी में पगी ऊर्दू की मिठास वाले कुछ नए-नए किस्म के शब्द और वाक्य यहां सुनाई देने लगे थे। मसलन, सलाम, नमाज का वक्त, ईद की तैयारियां, फातिहा, हज, उमरा और अल्लाह हाफिज...
जयपुर रवाना होने के पहले सीमा रेजी के शानदार घर में एक खुश-खबरी और आई। जब गोला-अहमद का गठबंधन तय हुआ तब तक रोबिन-श्रद्धा के सक्रिय सौजन्य से एक नए मेहमान की मासूम सी किलकारी गूंजी। नन्हें मेहमान का नामकरण किया गया- श्रीमान् शौर्य वीर। रॉबिन के प्रिय पुत्र, सीमा के परम प्रिय पोते और चौथी पीढ़ी को अपनी गोद में लेने के लिए बेसब्र प्रेमलता सोढ़ी के प्यारे पड़पोते। और अब कन्या पक्ष की ओर से जयपुर की शादी में शरीक होने वाले सबसे कम उम्र के मेजबान। इस खुशमिजाज बच्चे की खास देखरेख के लिए उसकी दादी ने एक अलग स्टाफ तैनात कर दिया था ताकि शादी की मसरूफियत में पांच महीने के शहजादे को कोई तकलीफ पेश न आए। खास शादी में सबके लिए सब कुछ खास ही हो रहा था।
नवंबर के आखिरी हफ्ते की कुछ शामें अब जयपुर के नाम थीं, जहां दिल्ली रोड पर आमेर किले के पास आमने-सामने के दो भव्य लोकेशन राजस्थली और शिव विलास पैलेस इस जलसे के गवाह होने वाले थे। राजस्थान में तब दिन में धूप अपनी गर्मी दिखा रही थी मगर शाम ढलते ही ठंड का असर होने लगा था। रात कुछ ज्यादा ही सर्द हो रही थीं। जिन चार राज्यों में चुनावी सरगर्मी थी, उनमें राजस्थान भी एक था। रणबांकुरों के इस राज्य में किसी पार्टी को दूसरी दफा पब्लिक ने मौका नहीं दिया था। इसलिए कांग्रेस सत्ता में वापसी का इतिहास बनाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही थी। डूबी-डुबाई बीजेपी को उस इकलौती लहर का आसरा था जो गुजरात के नरेंद्र मोदी ने देश भर में पैदा कर दी थी।
मगर राजनीति की इस गहमागहमी से बेखबर तीन सौ लोगों का काफिला अपनी ही दुनिया में था, जो एक नए रिश्ते की शुरुआत के लिए यहां आ डटा था। सारी रस्में राजस्थली में होनी थीं। डे प्लान छपकर बट चुका था। दो दिन में चार प्रोग्राम थे। दूल्हा-दुल्हन ही नहीं, दोनों पक्षों के हर आम और खास किरदार ने मौके के मुताबिक अपने खास पहनावे डिजाइन कराए थे। पगड़ी से लेकर जूते-जूतियों और रंगों की मेचिंग का बारीक ख्याल रखा गया था। लग रहा था जैसे किसी फिल्म या सीरियल के शादी वाले एपिसोड फिल्माए जाने हों।
स्टार सुविधाओं से लैस उस इमारत पर दोनों दिन लाइटिंग में कलर का चुनाव इस लिहाज से किया गया था कि सामने हरे-भरे लॉन में होने वाले जलसे के दौरान कैमरों की हर क्लिक शाही तस्वीरों की शक्ल में सामने आए। दोनों दिन लॉन में दो मंच अलग बैकग्राउंड में लगने थे, जिनमें आखिरी वक्त तक बदलाव की गुंजाइश थी। यह मोर्चा राजीव सोढ़ी ने संभाला हुआ था। उधर, नदीम भाई का पूरा ध्यान अब कीमे की क्वालिटी पर था, जिसकी कई डिशेज उन्होंने ओके की थीं। बीस फीसदी मेहमान ही दाल-रोटी के भरोसे थे, जिनमें एक मैं भी था।
पहले दिन शाम ढलते ही लॉन में एक मेगा स्क्रीन ने सबका ध्यान खींचा। यह करीब आधे घंटे की एक ऑडियो-विजुअल प्रस्तुति थी, जिसमें मेहमानों के सामने इस अनूठी शादी की थीम पेश की गई। सबसे पहले स्टेफी और अहमद के बचपन से लेकर अब तक की चुनिंदा तस्वीरें दिखाई दीं। दिल को छू लेने वाले ब्रेकग्राउंड म्युजिक और गीत-गजलों के साथ। कुछ दिलचस्प जानकारियां भी इसमें थीं, जैसे सिद्दीकी परिवार में 1968 के बाद पहली बार कोई बेटा पैदा हुआ था। बचपन की तस्वीरों में अपने अब्बू-अम्मी की गोद में इठलाते यह अहमद मियां ही थे, जो इस वक्त सामने सबसे आगे की कतार में अपनी जोहराजबीं के बगल में बैठे इस पेशकश का मजा ले रहे थे।
यह प्रस्तुति इतनी लाजवाब थी कि जो जहां था, वहीं थम गया। यह एकदम अनूठा प्रयोग था, जैसा आमतौर पर शादियों में कतई नहीं ही होता। ऐसी खास बातें ही तो इस शादी को खास बना रहीं थीं। साउंड सिस्टम एकदम दुरुस्त था। वॉयस ओवर में राजीव सोढ़ी की आवाज गूंज रही थी। आखिरी कोने तक उस बड़ी स्क्रीन पर उभर रही तस्वीरें भी सबको साफ दिख रहीं थीं। पिछले सौ साल में भारत में हुए ऐसे शादी संबंधों की मिसालें पेश की गई थी, जो दो मजहबों को मानने वालों के बीच हुए थे। खासतौर से हिंदू और मुसलमानों के बीच। किरदारों के संक्षिप्त परिचय के साथ उनकी तस्वीरें।
मसलन, बांग्ला मूल की 18 वर्षीय अरुणा गांगुली ने 1928 में अपने समय के नामी बेरिस्टर और उम्र में 22 साल बड़े आसफ अली को पसंद किया था। आसफ अली ने सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के मामले की पैरवी की थी। क्रिकेटर मंसूर अली खान पटौदी और मशहूर एक्ट्रेस शर्मिला टैगोर की 1969 में सबसे चर्चित शादी। वहीदा रहमान और शशि रेखी के रिश्ते। मुंबई मूल के एक्टर आदित्य पंचोली और तेलुगू भाषी जरीना वहाब ने 1986 में एक दूसरे को कुबूल किया था। सलमान खान की बहन अलवीरा और अतुल अग्निहोत्री की शादी के साथ ही सलमान खान के पूरे परिवार की तस्वीरें, जिसमें उनके मुस्लिम पिता, हिंदू मां, सिख भाभी और हिंदू जीजा एक साथ नजर आए। कोरियोग्राफर फराह खान और डायरेक्टर शिरीष कुंदूर की 2004 में हुई शादी। पूर्व केंद्रीय मंत्री राजेश पायलट के बेटे और अजमेर से सांसद सचिन पायलट के साथ जम्मू-काश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की बहन सारा अब्दुल्ला की 2004 में हुई शादी की तस्वीरें। ये कुछ ऐसी कामयाब शादियां थीं, जो टिकाऊ साबित हुई थीं।
आखिरी हिस्सा देखने-सुनने के बाद लॉन में कुछ पल के लिए खामोशी पसर गई थी। ज्यादातर लोगों को इसकी कोई जानकारी नहीं थी। इसमें मुगल बादशाह शाहजहां के बड़े बेटे दारा शिकोह को बड़ी इज्जत से याद किया गया। दारा ने 1654 में 'मजमा-उल-बहरैन' नाम की एक किताब लिखी थी, जिसका अंग्रेजी तर्जुमा कोलकाता की एशियाटिक सोसायटी ने छापा था-'मिंगलिंग ऑफ टू ओशियन-इस्लाम एंड हिंदुइज्म' नाम से। उदारवादी दारा शिकोह ने इसके जरिए भविष्य के ङ्क्षहदुस्तान की एक अवधारणा पेश की थी, जिस पर इस्लाम और हिंदू धर्म को मानने वाले करोड़ों लोग एक साथ रहकर अपने समय की दुनिया को देखेंगे और इस मुल्क को अपना श्रेष्ठतम योगदान देंगे। 'भागवत गीता और उपनिषदों को संस्कृत से फारसी में अनुवाद कराने वाला दारा अगर बादशाह होता तो कहना मुश्किल है कि हिंदुस्तान की तस्वीर क्या होती?'
रात जब जलसा थमा तो सलीम सिद्दीकी ने मुझे अगले दिन की खास तैयारियों का खुलासा किया, 'कल आपको अहमद मियां बादशाह अकबर के लिबास में दिखाई देंगे और हम हुमायूं के। हुमायूं का लिबास दरअसल बाबर का ही था।'
दूसरे दिन सुबह से दोपहर तक मैं आमेर के किले में रहा। मेरे गाइड थे गौरव सिंह। चित्तौडग़ढ़ के रहने वाले सिसौदिया क्षत्रिय गौरव पुराने जयपुर की चुनिंदा इमारतों में घूमते हुए यहां के सुनहरे इतिहास को याद कर रहे थे। बताने के लिए उनके पास राजा मानसिंह के अनगिनत किस्से थे। मगर गौरव ने जोर देकर कहा, 'सिंह एक टाइटल था, जो अकबर ने मानसिंह को दिया था। यह किसी का दिया हुआ था इसलिए नाम के बाद में लगा।' अकबर और मानसिंह के समकालीन चित्तौड़ के सिसौदिया घराने के महाराणा प्रताप का नाम लेते हुए गौरव का चेहरा खिल उठा था, 'महाराणा खुद का हासिल किया हुआ खिताब था इसलिए उनके नाम के पहले जुड़ा। वे कभी अकबर के आगे झुके नहीं। वे जिंदगी भर मुगलों से लड़े।' गौरव की मूंछें नहीं थीं। अगर होतीं तो यही बात वे मूंछों पर ताव देकर कह रहे होते। पांच सौ साल बाद भी महाराणा प्रताप का जिक्र रगों में बह रहे खून में उबाल ला देता है।
अकबर के नवरत्नों में से एक और काबुल से बंगाल तक अपनी जिंदगी में 77 में से 75 जंगें जीतने वाले मुगल सेनापति राजा मानसिंह को कमतर आंकने की वजह थीं जोधा बाई। एक हिंदू राजघराने की लड़की और मुगल बादशाह के बीच रिश्ते भला कैसे सामान्य हो सकते थे। यह सियासी समझौते थे। अकबर और जोधा के रिश्ते को वह इसी तरह परिभाषित कर रहे थे। गौरव ने नई बात बताई, जो मैंने कहीं पढ़ी नहीं थी। हर जगह यही पढ़ा था कि जोधा मानसिंह की बहन थीं। राजा भगवंतदास उनके पिता थे। मगर गौरव ने कहा, 'जोधा उनकी असल बेटी थी ही नहीं। वे एक दासी की बेटी थीं। राजा ने दासी को बहन मान लिया था। इस रिश्ते में जोधा उनकी बेटी हुईं। वे अपनी कन्या कैसे किसी मुगल को सौंप सकते थे। मगर रिश्ता भी कायम करना था। इसलिए यह बीच का रास्ता निकाला गया था।' यह तो अकबर जैसे ताकतवर बादशाह की सीधी तौहीन हुई कि सिर्फ रिश्ते गांठने के लिए उसे एक दासी की बेटी टिका दी जाए। अकबर को क्या यह मालूम नहीं होगा कि जोधा कौन है? गाइड के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था।
यह सच था कि मुगलों से इन रिश्तों की बदौलत ही इस इलाके में अमन कायम रह पाया था। इसका असर किले की इमारतों में साफ देखा जा सकता है, जो चार सौ साल बाद भी जस की तस महफूज थीं। आमेर महल के भीतर स्थित सिलादेवी मंदिर, जहां स्थापित देवी की मूर्ति बंगाल से लाई गई थी। राजा मानसिंह ने 1604 में बंगाल की जंग जीती थी। उन्हें यह भेंट जैसोर के राजा ने दी थी, जो आज बांग्लादेश में है। मुगल दरबारों की तर्ज पर दरबारे-आम और दरबारे-खास इंडो-इस्लामिक आर्किटेक्ट के बेहतरीन नमूने थे, जो साबुत बचे थे। यही चंद चीजें थीं, जो आज के राजस्थान सरकार की आमदनी का खास जरिया थीं और हजारों लोगों के हाथों को काम मिला हुआ था, क्योंकि हर रोज दुनिया भर के पांच हजार सैलानी इस विरासत को देखने आते हैं।
इतिहास की अंधेरी सुरंगें हमें धूल भरे अनगिनत तहखानों तक ले जाकर छोड़ देती हैं। इनमें जो कुछ भी समाया हुआ है, ज्यादातर धुंध में है। जोधा-अकबर का रिश्ता अतीत की धुंध में छिपा वक्त का ऐसा ही एक महकता हुआ टुकड़ा था।
शाम ढलते ही राजस्थली के रोशनी से नहाए विशाल प्रवेश द्वार पर जैसे इतिहास के पन्ने फडफ़ड़ा रहे थे। रात नौ बजे दरवाजे पर बारात पहुंची। सजे-धजे हाथी पर अहमद बिल्कुल अकबर की तरह नजर आ रहे थे। रत्नों से जड़ी पगड़ी और लंबी शेरवानी साफ चमक रही थी। सलीम एक लंबा खिरका पहने हुए थे। यह हुबहू शाही मुगल खानदान का नजारा था। कहीं से भी यह एक मुस्लिम बारात नहीं थी। बारातियों में लंबी दाढ़ी वाले मौलाना नहीं, सब लकदक सूट और शेरवानियां पहने हुए थे। सिद्दीकी खानदान की महिलाएं भी उतने ही जोशो-खरोश से शामिल थीं, मगर परदे में कोई नहीं। मुगले-आजम के एक गीत की क्या खूब लाइन है-परदा नहीं जब कोई खुदा से, बंदों से परदा करना क्या?
लिबास के डिजाइन में मुगलिया हुकूमत के संस्थापक बाबर और उनके पोते अकबर को इतनी शिद्दत से याद रखने वाले सिद्दीकी साहब ने एक और मुगल बादशाह की नसीहतों को अपनी सुविधा से दरकिनार कर दिया था। यह थे अकबर के पड़पोते, जहांगीर के पोते और शाहजहां के सपूत आलमगीर औरंगजेब, जो गाने-बजाने के सख्त खिलाफ थे और इसे इस्लाम विरोधी भी मानते थे। बारात में शामिल अकबर और हुमायंू के आगे जो सबसे बड़ा धमाल चल रहा था, वो जयपुर का एक जबर्दस्त बैंड था। हर किस्म के हिट गानों की मदहोश कर देने वाली धुन पर बारात में शामिल नौजवान जमकर नाच रहे थे। हाथी पर सवार अहमद भी भरपूर मजा ले रहे थे। वे नीचे आकर नाच में शामिल न होने की वजह से शायद मन मसोस कर बैठे हुए थे।
इस मजमे में लंबे चोगेधारी दो मेहमाने-खुसूसी हक्के-बक्के से हर रस्म को देख रहे थे। ये थे राबिया मरहून और राशिद अल मलकी। दोनों ही ओमान पुलिस के अफसर थे। एक मुस्लिम शादी में इतनी तड़क-भड़क, म्युजिक, डांस, आतिशबाजी और औरतों को बराबर शरीक देख उन्हें अपने यहां होने वाले सीधे-सादे निकाह याद आ रहे थे। मगर वे भी तौबा-तौबा करने की बजाए चुपचाप इस नजारे को अपने कैमरे में कैद करते हुए एंजॉय कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि ओमान और यहां की शादी में क्या फर्क दिखा? दो शब्दों में दोनों का जवाब था, 'टोटल डिफरेंट।'
जिस हाथी पर अहमद सवार थे, उसके बराबर दो घोड़ों की एक सुसज्जित बग्गी पर दुल्हन भी राजस्थली के एक दरवाजे को पारकर दूसरे दरवाजे की तरफ बढ़ रही थी, जहां राजपूताना शानो-शौकत की आखिरी झलक दिखाई देनी थी। हर कोना सोलहवीं सदी के किसी राजपूत महल की तरह सजाया गया था। मुख्य इमारत के गलियारों, खिड़कियों, बाहरी और अंदरुनी हिस्सों में हल्की हरी लाइट सुकून देने वाली थी। लॉन में एक विशाल मंच पर ताजे फूलों से सेहरे की आकृति बनाई गई थी, जिसके एक तरफ मौलवी के साथ अहमद ठाठ से बैठे थे। दूसरी तरफ स्टेफी मौजूद थी। पांच मिनट से कम वक्त में तीन गवाहों की मौजूदगी में एक लाख के प्रतीकात्मक मेहर की रकम पर स्टेफी ने अहमद को कुबूल फरमाया, जो अब सारा बानो हो चुकी थीं। मौलवी साहब ने जब अहमद और सारा का निकाह एनाउंस किया तो फौरन थालों में सजाकर सऊदी अरब से आए खजूर मेहमानों के बीच पहुंचाए गए। लॉन में आवाजें गूंज रही थीं-मुबारक हो, मुबारक हो। मैंने खजूर वाले को रोके रखा, क्योंकि इनका स्वाद दूध, मावे और शकर की सारी मिठाइयों को मात करने वाला था। एकदम अलौकिक!
माहौल में आखिरी मिठास घोली हिलसा और आशीष ने। मोहम्मद रफी, मुकेश और किशोर कुमार के गाए सत्तर के दशक के सुपरहिट नग्में जो छेड़े तो लोग लगातार तीखी हो रही सर्दी को भी भूल गए। रात के दो बज चुके थे और ठंड से बचने के लिए लगे हीटर भी जवाब देने लगे थे मगर कुर्सियों पर जमे मेहमानों की तरफ से फरमाइशें जारी थीं। तब राजीव भी पुरानी रंगत में आए और मनहर उधास से मिलती-जुलती आवाज में उनके सुर सबने सुने, 'हर किसी को नहीं मिलता यहां प्यार जिंदगी में।' गाना सही था, मगर राजीव गलत थे। इस कहानी में जितने भी किरदार आए, सबको वह नसीब हुआ था, जो उसने चाहा। राजीव, सरिता, रॉबिन, श्रद्धा, स्टेफी और अहमद!

तीन घंटे की यह महफिल कब खत्म हुई पता ही नहीं चला। बारात विदा हो चुकी थी। सुबह करीब थी। हवाओं में भरी ठंड अब शबाब पर थी। आमेर के साए में राजस्थली जगमगा रही थी। लॉन में हल्की सी धुंध छाने लगी थी। मैंने अपने कमरे की खिड़की से बाहर एक सरसरी निगाह दौड़ाई। परदा गिराने के पहले जो आखिरी दृश्य मेरी आंखों में था, उसमें अहमद के सिर पर हाथ फेरते हुए प्रेमलता सोढ़ी दुल्हन बनी अपनी प्यारी नातिन की नाजुक कलाइयों में सोने की वही चूडिय़ां सजा रही थीं।
सौरभ द्विवेदी के वेबपोर्टल की लिंक यह रही-

http://www.thelallantop.com/tehkhana/the-modern-marriage-of-jodha-and-akbar-at-amer-fort/

आहत आत्मा की पवित्र गहराइयां



प्रिय विजयजी,

आपकी किताब के छह अध्याय तसल्ली से पढ़कर उस पर अपना मनोगत भेजा है। आपका लेखन गजब का है। उसमें इतिहास, वर्तमान तो है ही भविष्य की दिशा का संकेत भी है। लेखन ऐसा है जैसे आप ट्रेन के डिब्बे में बैठकर खिड़की के बाहर देख रहे हों। दृश्य लगातार बदलते चले जाते हैं। आप की स्मरण शक्ति की दाद देनी पड़ेगी। एक बार पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही चला गया। पूरी करने के बाद फाइनल कट अवश्य भेजना चाहूंगा।

इस नायाब तोहफे के लिए आपको दिल से धन्यवाद व शुभकामनाएं।

आपका 
आनंद
Inline image 1

--------------------------------------------------

वरिष्ठ पत्रकार आनंद देशमुख की समीक्षा-

‘इजराइल आज अपने ही खंडहरों पर खड़ा एक चमत्कार है। क्या भारत भी कभी अपने अवशेषों पर ऐसा ही कोई करिश्मा रच पाएगा? या सदियों की उथल-पुथल के बाद टूट-फूटकर सिर्फ बचे रहना ही इसके हिस्से की सबसे बड़ी उपलब्धि है?.... विजय मनोहर तिवारी का यात्रा दस्तावेज ‘भारत की खोज में मेरे पांच साल’ इसी सवाल का जवाब तलाशता लगता है। इस तलाश की खासियत यह है कि इसमें कोई निष्कर्ष नहीं है। एक कैमरा चालू करके छोड़ दिया गया है। जो इस देश की अपार विविधता के फलक पर घूमता रहता है अौर दृश्य दर्ज करता जाता है। हां, दृष्टिकोण देने के लिए साथ-साथ में ऐतिहासिक तथ्यों का पुट जरूर है। भारत की विविधता, आम आदमी की वु्द्धिमत्ता, उसके रहस्य, ‘कोई नृप होई हमें का?’ की प्रवृत्ति और गज़ब के स्वीकार भाव को यह कैमरा जस-के-तस पकड़ता चलता है। निष्कर्ष अपने आप निकल आता है।

 मसलन, अयोध्या विवाद पर फैसले के दिन की रिपोर्टिंग ‘हे राम’’ पढ़िए- ‘अयोध्या के लोगों के लिए यह एक पुराना हिसाब चुकता करने जैसा जरूरी मामला था, जिससे अब राहत महसूस की जानी चाहिए थी...दंगों पर उनकी बहुत आसान-सी दलील थी कि भारत के लिए यह कोई  नई बात नहीं थी। इस वजह से नहीं तो उस वजह से दंगे तो होते ही रहे थे। इस संघर्ष में नया कुछ नहीं है। लोग पहले भी राम जन्म भूमि के लिए शहीद होते रहे हैं....’ यह आम आदमी का ही दर्शन हो सकता है, जो अपने लक्ष्य के लिए चुकाई जाने वाली कीमत को समझता है...कीमत चुकाने को तैयार है और उसे कोई बहुत बड़ी शहादत कहने को भी तैयार नहीं है। 

मध्यवर्ग वर्ग चाहता सबकुछ है पर कीमत चुकाने को तैयार नहीं है। यह संयोग नहीं है कि देश में मध्यवर्ग का दायरा बढ़ने के साथ  फैसले का इंतजार करने वाले मसलों की संख्या भी बढ़ती जा रही है, जब इनमें से एक भी मसला ऐसा नहीं है, जो अयोध्या मसले जैसी पेचिदगी रखता हो। हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य याद आता है है ‘गुड़ की चाय’ यह बांग्लादेश युद्ध के बाद के अभाव के दिनों की बात है जब चीनी के अभाव में गुड़ की चाय पीना पड़ती थी। परसाईजी लिखते हैं कि मध्यवर्ग गुड़ की चाय पीना ही बहुत बड़ी शहादत मानता है। उसे लगता है यदि 1920 से 1930 के बीच देश गुड की चाय पीता तो कब का आजाद हो जाता।‘ 

‘गुजरात से आए एक दल के सदस्य भावुक होकर कह रहे थे कि भगवान को इस हाल में देखकर कुछ मांगने की बात सोचकर भी शर्म आई। हम उन्हें एक सम्मानजनक स्थान नहीं दे सकते तो इस हालात में उनसे कुछ मांगने से ज्यादा नीचता कुछ हो नहीं सकती,’ बहुराष्ट्रीय कंपनियों में मोटी तनख्याहों से धनी हुए  नवधनाढ्य मध्य वर्ग के स्वार्थी दृष्टिकोण पर यह तमाचा है। यह वह दृष्टिकोण है, जहां व्यक्ति धार्मिकता के दायरे को लांघकर आध्यात्मिकता के क्षेत्र में पहुंचता है। यह मूर्ति के पीछे मौजूद ईश्वर के अमूर्त विचार की आराधना है, अमूर्त ईश्वर को देख पाने की क्षमता। वरना मूर्ति को ही ईश्वर मानकर की गई पूजा दंभ, मूढ़ता और अड़ियलपन ही पैदा करता है, जिन्हें हम मूर्तियों व मंदिरों की बढ़ती संख्या के साथ हमारे समाज में बढ़ता देख ही रहे हैं। 

भारत की मौलिक बुद्धिमत्ता व आध्यात्मिकता क्या चमत्कार कर सकती है यह ‘देवभूमि के देवता’  सच्चिदानंद भारती के कर्मयोग से स्पष्ट होता है। उत्तराखंड के इस शिक्षक ने सिर्फ अपने दमपर पौड़ी गढ़वाल, नैनीताल और अलमोड़ा की निर्वस्त्र पहाड़ियों पर 40 लाख पेड़ लगाकर न सिर्फ उन्हें हरभरा किया बल्कि पानी के झरने बहा दिए। यह चमत्कार मात्र 20 हजार रुपए सालाना का उनका संगठन ‘दूधातोली लोक विकास संस्थान’ ने कर दिखाया है। संयुक्त राष्ट्र ने उनके काम से खुश होकर संस्था को 100 करोड़ रुपए देने की पेशकश की थी, लेकिन सच्चिदानंदजी ने विनम्रता से इनकार कर दिया, क्योंकि इतना पैसा अपने साथ 100 झंझटें लेकर आता और काम एकतरफ ही रह जाता। यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण है। पैसा जहां और जितना जरूरी है, उसके उतने महत्व को समझना। 

‘सच का सामना’ वाकई भारत के सच से सामना ही है। नौजवान पंडोखर सरकार का दरबार अद्‌भुत है। उनसे सवाल पूछने गए लोगों के सवाल पहले से ही रखी पर्चियों पर लिखे होते। विजयजी को तो कोई सवाल नहीं पूछना था, सिर्फ आशीर्वाद चाहिए था. पंडोखोर सरकार ने पर्ची उठाई, लिखा था, ‘कोई  सवाल नहीं..आशीर्वाद।’ अपनी इस अद्‌भुत क्षमता पर पंडोखर सरकार को कोई गर्व नहीं है। वे पाखंडी साधु-संतों का भंडाफोड़ कर आध्यात्मिक शक्ति का असल बोध जगाना चाहते हैं। निजी जीवन में गुरुशरण एक रिसर्चर हैं। उनका मानना है कि मध्यप्रदेश के दतिया जिले की भांडेर तहसील का इलाका द्वापर युग में महाभारत के प्रमुख पात्रों की चहल-पहल से भरा था। बस 75 हजार का कैमरा खरीदकर दिन-रात लगे रहते हैं इलाके के इतिहास-पुराण का वीडिया दस्तावेज तैयार करने में। भारत की दिलचस्पी इतिहास जानने में कभी नहीं रही, क्योंकि जब सबकुछ ईश्वर की लीला है तो फिर इतिहास पुराण बन जाता है। पुराण मिथक का रूप लेकर किंवदंतियों से होते हुए अंधविश्वास व अज्ञान के अंधेरे में लेने जाने वाली पाखंड की पगडंडियों पर कब पहुंच जाते है, पता नहीं चलता। वामपंथ ने दलितों व वंचितों की समस्याओं के प्रति हमें संवेदनशील तो बनाया, लेकिन अपने पूर्वग्रह के कारण उसने भारत के इतिहास को सिर्फ राजाओं, युद्ध क्षेत्र व योध्याओं के नामों व तारीखों के सतही विवरण तक सीमित करके रख दिया। जो सामान्य ज्ञान की परीक्षा में सफलता तो दिला सकते हैं पर न तो इतिहास बोध जगाते हैं और न प्रेरित करते हैं। अपने इतिहास बोध के लिए ख्यात पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाकर समाजवाद व पूंजीवाद दोनों के सर्वश्रेष्ठ को लेने का प्रयास किया। क्या ऐसा ही वे ज्ञान के क्षेत्र में नहीं कर सकते थे? सामंतवाद और धार्मिक कट्‌टरता के पुष्ट होने के भय से उन्होंने भारत की मूल आत्मा को ही दफ्न कर दिया। आज बिना आत्मा का यह देश सिर्फ जर्जर काया लेकर खड़ा है। ‘नालंदा की राख पर’ पढ़कर अपनी विरासत खोने का ऐसा तड़पभरा अहसास होता है कि लगता है यदि नेहरू आजादी के तत्काल बाद, हमारे भुलाए इतिहास, संस्कृति व पौराणिक वैभव को जगाने का अभियान चलाते तो फिल्मों, कला और अब विज्ञान तक में नकल करता हमारा यह देश मौलिकता के लिए पहचाना जाता, आदर प्राप्त करता। 

‘कुड़े के ढेर पर सोने जैसा बंगाल’ उसी इतिहास के प्रति बेपरवाही की कड़ी का अगला नमूना है.. विजयजी दर्ज करते हैं ‘हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के जिन इलाकों में भी मुस्लिम सुलतानों, बादशाहों या नवाबों की स्वतंत्र सत्ताएं कायम हुईं, वे ग्राउंड जीरों नहीं थे। वहां सदियों से हिंदू या बौद्ध शासकों के शासन रहे थे, जहां हजारों की तादाद में मंदिर, स्तूप, महल, कुएं, बावडि़यां, तालाब, बाजार और राजकाज की तमाम इमारतें थीं। हर राजवंश के हरेक राजा ने पीढ़ियों तक इनमें अपने हिस्से के सबसे शानदार निर्माण भी जोड़े थे। यद सदियों में विकसित हुई एक विस्तृत और मालामाल विरासत थी।’  आज के शासक तो इतिहास बोध में कंगाल ही हैं। लेकिन यह जानकर अच्छा लगा कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी इतिहास के विद्वान हैं। ‘इतिहास की समझ के कारण ही उन्होंने अपनी मां राजलक्ष्मी देवी के नाम पर ट्रस्ट स्थापित कर बंगाल के एक महान शासक शशांक के समय बने मंदिर को नई शक्ल देने का काम हाथ में लिया। स्थानीय लोगों की नजर में उनका यह काम सरदार वल्लभभाई पटेल के सोमनाथ मंदिर के नवनिर्माण की टक्कर का है।’ 
बंगाल की चर्चा करते-करते विजयजी म्यांमार, मलेशिया, इंडोनेशिया, कंबोडिया, लाओस और विजयनाम में भारतीय साम्राज्य के विस्तार में ले जाते है।, ‘वियतनाम में सदियों के शासन के बावजूद ऐसा एक भी तथ्य सामने नहीं था कि हजारों हिंदू मंदिरों में से एक भी पुराने, स्थानीय देवस्थलों को तोड़कर बनाया गया हो।’ मुस्लिम व अंग्रेजी उपनिवेशों के बरक्स यह अलग ही विजयगाथा है।

विजयजी ने .यह तो अच्छा किया कि उन्हें  अपनी यात्राओं में भारत की ‘आहत आत्मा की पवित्र गहराइयों में झांकने का जो मौका’ मिला उसे तत्काल दर्ज कर उसे दस्तावेज बना दिया। लेकिन अब उन्हें तसल्ली से बैठकर अपनी गहरे इतिहास बोध के आधार पर एक परिप्रेक्ष्य देकर फिर उन्हीं इलाकों की मानसिक यात्रा कर नई गहराइयों के साथ भारत पेश करना चाहिए।

Thursday 3 March 2016

जिंदगी में जगमगाते पांच किरदार



रिजल्ट के दबाव में हताश स्कूली बच्चे खुदकुशी कर रहे हैं। हमारे आसपास ऐसे कई लोग हैं, जो फेल हुए, नंबर कम आए। खराब रिजल्ट के उन पलों में खुद को संभाल नहीं पाए। खुदकुशी की कोशिश की। मगर किसी न किसी तरह वह पल बीत गया। वे नई जिंदगी में वापस आए। फिर अच्छे रिजल्ट भी आए। खुद को साबित करने के मौके भी। दैनिक भास्कर के साथ पहली बार अपनी आपबीती शेयर करने के लिए तैयार हुए एक समय जिंदगी से हार मानने वाले ऐसे की पांच किरदार, जिन्होंने जिद से अपनी जिंदगी बदली।

------------------------
1. चाैथी मंजिल से कूदने को थी, शुक्र है जिंदा हूं, अब पढ़ रही हूं...
आफरीन खान, 21 साल, आरजीपीवी में इंजीनियरिंग अंतिम सेमेस्टर की छात्रा।



छठे सेमेस्टर का रिजल्ट खराब आया। उसे एक पेपर में अनुपस्थित बताया गया था। कॉलेज में कोई मानने को तैयार नहीं था। वह इतनी हताशा में आ गई कि एक फैसला ले लिया। यह 12 अगस्त 2015 की बात है। मत्स्य विभाग में कार्यरत मंसूर खान और स्कूल टीचर कमर खान की बेटी आफरीन छत से कूदकर जान देने की कोशिश की। चौथी मंजिल से छलांग लगा रही थी। तभी पड़ोस की एक महिला की नजर उस पर पड़ी। उसे बचा लिया गया। वह कहती है- तब दिमाग में केवल नकारात्मक ख्याल आ रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे मेरे लिए सारे दरवाजे बंद हो गए हैं। मेरी पढ़ाई बेकार गई। खुद को खत्म करना ही मुनासिब लगा। घटना के डेढ़ महीने बाद घर से पहली बार अकेले बाहर निकली। अब मुझे अकेला नहीं छोड़ा जा रहा था। फिर कुछ पॉजिटिव और एक मुकाम तक पहुंच चुके लोगों से मिली। समझ आया कि केवल नंबरों के पीछे भागना समझदारी नहीं है। बस तभी से सोच बदल ली। अब संगीत सुनती हूं। कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रम में हिस्सा लेती हूं। मेरी मां मेरे लिए रोल मॉडल हैं। उन्होंने ही मुझे संभाला।
सुसाइड की खबरों पर वे कहती हैं-अपनी गलती का अहसास होता है। ऐसे बच्चे अपने परिवार को दुख देकर चले जाते हैं। परिवार के बारे में कोई नहीं सोचता। हमें उनके बारे में ख्याल करना होगा। हर बच्चा पहली पोजीशन नहीं पा सकता। आगे बढ़ने के लिए कई पॉजिटिव ऑप्शन हैं। खुद पर भरोसा करें।
--------
2. मैथ्स में ग्रेस से पास हुई, लगा सब खत्म हो गया
अनुपमा महेश्वरी, 42 साल, जानी-मानी करियर काउंसलर,

 पति अभय महेश्वरी फाइनेंस प्लानर, वैल्थ कंसल्टेंट हैं। उनकी हाॅबी है होम डेकोरेशन, मोटीवेशनल वीडियो और मूवी देखना। वे पढ़ने में शुरू से मेधावी थीं। हमेशा फ़र्स्ट डिवीजन। दसवीं के बाद पीसीएम ले लिया। मैथ्स में नंबर कम आने लगे। स्कूल और घर में एक ही बात होती कि पढ़ने में कमजोर हूं। कांफिडेंस लेबल इतना गिर गया कि परीक्षा देते समय सब कुछ भूल गई। ग्यारहवीं में सप्लीमेंट्री आई। जैसे-तैसे पास हुई, 12 वीं कक्षा में पहुंची। यहां रिजल्ट आया तो मैथ्स में ग्रेस मिला। तब लगा अब सब खत्म हो गया। इतने निगेटिव विचार आए एक क्षण को लगा कि जीवन ही खत्म कर देना चाहिए। माता-पिता ने कम नंबर लाने पर कोई ताना नहीं दिया इसलिए ग्लानि और बढ़ गई। कोई कदम उठाती उसी वक्त एक मैगजीन में करियर काउंसलर उषा अलबूक्वैरक्यू का लेख पढ़ा। उनसे मिली। उन्होंने काउंसलिंग की । उन्होंने बताया मैंने गलत विषय चुना है। यदि मैं आर्ट के विषय लेती तो अच्छा स्कोर करती। बस ग्रेजुएशन में विषय बदल लिया। काॅलेज में टॉप किया। करियर काउंसलिंग में पीएचडी की। अब बच्चों को करियर चुनने में मदद करती हूं। मगर खुद को खत्म करने वाले उसे भयावह पल की वह याद किसी से अब तक शेयर नहीं की। आज इसलिए हिम्मत की ताकि बता सकूं की पास-फेल होना मेटर नहीं करता। बच्चे वह चुनें जिसमें उन्हें खुशी मिलती हो।
-------------
3. फांसी लगाने वाली थी पापा को लगा कुछ गड़बड़ है और फिर...
सिंधु धौलपुर, 30 साल, रंगमंच कलाकार।

पिता राजाराम धौलपुर हेल्थ अफसर हैं। दो भाई बैंक में। जानीमानी थिएटर कलाकार। एडमायर सोसायटी फॉर थियेटर कल्चरल एंड वेलफेयर समिति की डायरेक्टर। सिंधु ने 12वीं ही नहीं ग्रेजुएशन भी फ़र्स्ट डिवीजन में पास हुई। इसके बाद मनोविज्ञान विषय में पीजी का प्रीवियस में भी मार्क अच्छे आए। फाइनल का पेपर देते समय बीमार हो गई। पेपर बिगड़ गया। उम्मीद थी कि 60 प्रतिशत बन ही जाएंगे। जब रिजल्ट आया तो नोटिस बोर्ड में रोल नंबर ही नहीं था। लगा दो साल की मेहनत बर्बाद हो गई। कई दिनों तक घर में किसी को नहीं बताया कि फेल हो गई। अकेले कमरे में बंद रहती। खाना पीना भी बंद कर दिया। एक दिन सोचा फांसी लगा लूं। उसी समय न जाने क्यों पिताजी को लगा कि कुछ गड़बड़ है। उन्होंने बुलाया और पूछा क्या हुआ। मेरे मन में जैसे गुबार फूट गया। उन्हें सारी बात बता दी। अपने मन में आए उस ख्याल को भी। पापा बोले- जिंदगी यही खत्म नहीं होती। कॉपी रीचेक कराओ। तब पता चला कि एक विषय की कापी चेक नहीं हुई थी। पास तो हो गई लेकिन वह डिवीजन नहीं बना जो चाह रहे थे। फिर पिताजी की सलाह पर करियर बनाने के दूसरे ऑप्शन के विषय में सोचा। रंगमंच पर आई। लगा कि यही तो वह था जाे मैं सबसे बेहतर कर सकती थी।
---------------------
4. फेल देखकर मैं क्या करने वाली थी, जब कॉपी रीचेक हुई तो...
दिशा जैन, 28 साल, माध्यमिक शिक्षा मंडल की हेल्प लाइन में काउंसलर। क्लासिकल म्यूजिक सुनती हैं। लतीफे शेयर करती हैं। 

कारोबारी परिवार की दिशा के घर में चार बहन एक भाई थे। सब पढ़ने में अव्वल। पिता की ख्वाहिश थी कि बच्चे पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो जाए। दिशा ने बीए फ़र्स्ट और सेकंड ईयर में क्लास में टॉप किया था। फाइनल ईयर में अंग्रेजी में फेल हो गई। रिजल्ट देखकर लगा जैसे करंट लग गया।शाम होने तक कॉलेज में रही। मैं इस बात को स्वीकार ही नहीं कर पा रही थी कि मैं फेल भी हो सकती हूं। मैं बेचैनी से घूमते हुए कॉलेज की छत की ओर जा रही थी कि एक टीचर ने टोका तो सकपका गई। बात को टालकर तेजी से नीच आई गई। टीचर की नजर बचाकर यह सोचते हुए एक बार ऊपर चढ़ ही रही थी कि अब नहीं जीना। घर वालों से क्या कहूंगी। टीचर ने भांप लिया। उन्होंने पूछा क्या बात है-तुम्हारा व्यवहार बदल हुआ लग रहा । उन्होंने बड़े स्नेह से सिर पर हाथ रखा तो में फूटकर रो पड़ी। पूरी बात बताई। उन्होंने समझाया- इसमें रोने वाली बात कहां है। काॅपी चेक करवा लो। रिवेल्युएशन कराया। जिसमें न केवल नंबर बढ़े बल्कि डिवीजन बना। टीचर ने मेरी मनोदशा नहीं पहचानी होती तो आज में इस दुनिया में ही नहीं होती। अब सबको अपना उदाहरण देते हुए बताती हूं कि कोई भी निर्णय भावुकता में न ले।
---------------
5. फंदा तैयार था, मगर मंडेला की किताब को देखा और दृष्टि बदल गई
राजेश कुमार पटेल, 26 साल,  इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद सिविल सर्विस की तैयारी में।

 पिता कुंजलाल किसान हैं। मां संतोषिया देवी गृहणी हैं। घर के इकलौते बेटे राजेश ने वर्ष 2014 में जान देने की कोशिश की थी। कॉलेज में 75 फीसदी से ज्यादा अंक रहते थे। एमपीपीएससी-2013 का परिणाम आया तो सिलेक्ट नहीं हुए। उस नाकामी को सहन नहीं कर पाए। वे कहते हैं-मैंने रस्सी तैयार कर ली थी। टेबल पर  नेलसन मंडेला की एक किताब ए लॉंग वॉक टू फ्रीडम पर नजर गई। उसे पलटने लगा। मंडेला 29 साल तक जेल में रहे थे। उन जैसे विकट हालात तो मेरे नहीं थे। एक पल में मरने का ख्याल बाहर हो गया। मगर मुझे सहारा देने वाला कोई नहीं था। बूढ़े मां-बाप हैं, जो नहीं जानते कि इस हालात में बच्चे को क्या समझाएं। मैंने कोशिश में कोई कसर न छोड़ने की ठान ली, क्योंकि मैं यही कर सकता हूं। नेलसन मंडेला से बड़ा मेरा कोई रोल मॉडल नहीं। आज जब सुसाइड की खबरें सुनता हूं तो मुझे उन बच्चों के माता-पिता का ख्याल आता है। आपका एक गलत कदम उन्हें जिंदगी भर के लिए तकलीफ दे सकता है। इसलिए उस पल को जैसे भी हो टालिए। अपनी क्षमता को पहचानिए। खुदकुशी किसी परेशानी का हल नहीं। बड़ी कामयाबियां बड़ी नाकामियों के बाद आती हैं।

Monday 15 February 2016

लंबे अंतराल के बाद

एक साल हो गया। ब्लॉग वीरान ही पड़ा है। पिछले साल इन्हीं दिनों मैं भारत भर की यात्राओं से मुक्त हुआ था। 2010 से 2015 के बीच पूरे भारत की करीब आठ परिक्रमाएं पूरी करने के बाद एडिशन के कामकाज में नई भूमिका में जुटा था। समय पंख लगाकर उड़ गया। एक बरस बीत गया। जल्द ही मेरे यात्रा अनुभव एक किताब की शक्ल में आने वाले हैं। इसमें आप मेरे साथ सैर करेंगे हजारों साल पुरानी सभ्यता वाले विविधता से भरपूर भारत को उसके हर मौसम और हर मूड में, हर रंग और हर  रूप में। यह एेसी किताब होगी, जिसे मैंने आराम से घर में बैठकर नहीं लिखा। इसका हर पन्ना देश के अलग-अलग शहरों के होटलों, रेलवे स्टेशनों के वेटिंग हॉल, एयरपोर्ट या ट्रेनों के लंबे सफर में लिखा गया। शुरुआत इजरायल के ओल्ड जेरूशलम में की, जहां मुझे लगा कि यात्राओं के एकदम ताजे विवरण यात्राओं के दौरान ही लिख दिए जाने चाहिए। यह काम पूरा हुए भी एक साल से ज्यादा हो गया। उम्मीद है किताब पसंद आएगी।

कालसर्प योग

ये विवरण आप अपने विवेक से पढ़ें। ये महाराष्ट्र की मेरी यात्राओं के अनुभव हैं। मैं त्रयम्बकेश्वर का जिक्र कर रहा हूं , जो जन्मकुंडली और ज...