ये
विवरण आप अपने विवेक से पढ़ें।
ये महाराष्ट्र की मेरी यात्राओं
के अनुभव हैं। मैं त्रयम्बकेश्वर
का जिक्र कर रहा हूं,
जो
जन्मकुंडली और ज्योतिष में
भरोसा रखने वालों के लिए कालसर्प
योग की शांति का एकमात्र केंद्र
है। यह भारत की सर्व समावेशी
संस्कृति का भी एक गजब नमूना
है। मैंने एक जिज्ञासु के रूप
में यहां की यात्रा की थी।
मेरा विश्वास अपनी जगह है मगर
मेरी कुंडली में ऐसा कोई योग
नहीं है। मैं किसी पक्ष या
विपक्ष में नहीं हूं। अपने
बुद्धि-विवेक
से परंपराओं में यकीन रखता
हूं। यह मेरा निजी मामला है।
एक प्राचीन मंदिर और सिद्ध
स्थान के दर्शन का लालच मुझे
यहां खींच ले गया था। मैं यहां
कई लोगों से मिला। पुरोहितों
से भी,
दूर-दूर
से आए ग्रह नक्षत्रों से
हैरान-परेशान
हर वर्ग के यजमानों से भी। दो
भागों में यह विवरण इन्हीं
लंबी बातचीतों पर आधारित है।
35
साल
के मोहम्मद शहरोज मुंबई के
हैं। ट्रांसपोर्ट कारोबारी
हैं। पढ़े-लिखे
हैं। पैसे वाले हैं। सब कुछ
ठीक चल रहा था। पांचेक साल
पहले अचानक एक बड़ी रकम किसी
झमेले में फंस गई। कई उपाय
किए। कोई रास्ता नहीं निकला।
कुछ और कारोबारी झटके भी लगातार
लगे। वे बड़े परेशान हुए। किसी
ने कहा यहां चादर चढ़ाओ,
वहां
मत्था टेको। कई दरगाहों पर
गए। ताबीज बांधे। कोर्ट-कचहरी
भी चली। मगर मुश्किल बढ़ती गई।
उनके दोस्तों की जमात भी बड़ी
है। दोस्तों में सब जाति-मजहब
वाले हैं। किसी हिंदू दोस्त
ने कह दिया-मियां
कुंडली किसी जानकार को दिखाओ।
कोई ग्रह गड़बड़ कर रहा है। वर्ना
यह सब अचानक नहीं होता और
बार-बार
नहीं होता। भरोसा हो तो मैं
एक पता देता हूं।
उन्होंने
नासिक के एक पुरोहित का नंबर
थमा दिया। शहरोज अगली ही छुट्टी
में उनसे मिले। जन्म कुंडली
तो थी नहीं। घर में पूछकर अपने
जन्म की तारीख,
दिन
और स्थान बताया। कुंडली में
कालसर्प योग पाया गया। वे
इस्लाम के अनुयायी हैं,
जहां
बुतपरस्ती और पूजा-पाठ
हराम है। पुरोहित ने कालसर्प
योग की शांति के लिए भारत की
सनातन परंपरा में प्रस्तावित
शास्त्रों का उपाय उन्हें
बताया। साथ ही यह भी कहा कि वे
चाहें तो पालन करें,
चाहें
तो न करें। यह विश्वास की बात
है। मायूस शहरोज कई दरवाजों
से होकर यहां आए थे। उन्होंने
स्वीकार किया कि यह सच है कि
हमारे यहां इन चीजों को लेकर
कोई यकीन नहीं है। यकीन ही
नहीं,
नफरत
की हद तक विरोध भी है। उन्होंने
माना कि हमारे पुरखे हिंदू
ही थे,
ऐसा
भी हमारे बुजुर्गों से हमने
अक्सर सुना है। शहरोज अपनी
बीवी और बेटी के साथ पूरे
भक्तिभाव से एक सुबह चार घंटे
की इस पूजा में बैठे। अनुकूल
परिणाम के लिए पुरोहित की बताई
सात्विक जीवन की शर्तों का
पालन किया। दो महीने के भीतर
अपने करीबी रिश्तेदाराें और
दोस्तों को भी उन्होंने यहां
का पता बताया,
जो
उन्हीं की तरह लगातार और बेवजह
की मुश्किलों से मशक्कत कर
रहे थे।
भगवान
शिव के 12
पवित्र
ज्योतिर्लिंगों में से एक यह
जगह इस नाते भी दुनिया भर के
हिंदुओं में प्रसिद्ध है कि
यह कालसर्प योग की शांति का
एकमात्र स्थान है। जन्मकुंडली
में कालसर्प योग है तो जीवन
में वह अपने घातक प्रभाव दिखाता
रहता है। जो लोग इन पर विश्वास
करते हैं,
वे
इस विपरीत योग की शांति के लिए
बिना देर किए त्रयम्बकेश्वर
का टिकट कटाते हैं। दुनिया
भर से करीब दस हजार लोग रोजाना
यहां आते हैं। नागपंचमी के
दिन यह संख्या 50
हजार
से ऊपर होती है,
जो
चार से छह महीने पहले अपना
अनुष्ठान आरक्षित करते हैं।
त्र्यम्बकेश्वर में करीब
पांच सौ दक्ष पुरोिहत हर दिन
सुबह चार बजे से दोपहर दो बजे
तक इस दुर्योग से निजात के लिए
शास्त्रोक्त विधि का पालन
करते हैं।
मोहम्मद
शहरोज यहां आने वाले उन 10
फीसदी
यजमानों में से एक हैं,
जो
हिंदू नहीं हैं लेकिन अपने
या अपने परिवार में आए ऐसे
किसी भी लाइलाज संकट के निदान
के लिए मजबूर होकर यहां तशरीफ
लाते हैं। इनमें ज्यादातर
मुस्लिम,
ईसाई,
सिख
और कुछ बौद्ध भी हैं। बाहर की
दुनिया में ब्राह्मणों को
पानी पी-पीकर
गरियाने वाले समय के सताए हुए
दलित नेता और अफसर भी कुंडली
में कालसर्प योग का पता चलने
पर माथे पर तिलक लगाए यहां
कतार में नजर आएंगे। आरक्षण
या प्रमोशन में आरक्षण की
पैरवी करने वाले कई माननीय
मंत्री-मुख्यमंत्री
यहां आते रहते हैं और किसी की
हिम्मत नहीं जो यहां पूजा-अनुष्ठान
में आरक्षण लागू करने की बात
दिमाग में भी लाए। वे उन्हीं
ब्राह्मणों के बारंबार चरण
छूकर प्रस्थान करते हैं,
जिनके
बारे में राजनीतिक सभाओं में
अल्लबल्ल बकते हैं।
अब
मिलिए 27
साल
के पंडित विष्णु तिवारी से,
जो
त्रयम्बकेश्वर के पांच सौ
दक्ष पुरोहितों में सबसे युवा
हैं। वे महर्षि महेश योगी की
वेद विज्ञान विद्यापीठ में
पांच साल तक वेदों,
ज्योतिष
और कर्मकांड की पढ़ाई कर चुके
हैं। अपनी जिंदगी के इन शानदार
सालों में वे हरेक ज्योतिर्लिंग
पर तीन-तीन
महीने की परिक्रमा अनेक
अनुष्ठानों के साथ पूरी कर
चुके हैं। यह उनकी पढ़ाई का
व्यवाहरिक हिस्सा था। पूरी
पढ़ाई के दौरान वे जबलपुर,
इलाहाबाद
और दिल्ली जैसे बड़े केंद्रों
में भी रहे। 2011
से
वे त्रयम्बकेश्वर में हैं,
जहां
वे सबसेे पहले 2003
में
आए थे। वे कहते हैं कि यहां
आकर यूं ही कामना की थी कि ईश्वर
मुझे यहीं अपनी शरण में बुलाना।
और योग कुछ ऐसे बने कि वे
मध्यप्रदेश को अलविदा कहकर
यहां बस गए। संस्कृत में तो
वे निष्णात हैं ही,
हिंदी
से अच्छी मराठी है।
कालसर्प
योग का नाम सबने सुना है मगर
यह होता क्या है?
किसी
भी जन्मकुंडली में 12
गृह
होते हैं। इनमें से किसी एक
में अगर राहू विराजमान है तो
उससे सातवें घर में केतु होगा
ही। अगर ऐसा नहीं है तो कुंडली
सही नहीं मानी जानी चाहिए।
राहू के किसी भी घर में होने
का सीधा मतलब है कि वह उसे कमजोर
करेगा। आसान भाषा में कहें
तो राहू का स्वभाव है-कबाड़ा
करना,
भट्टा
बैठाना। जिस भी ग्रह के साथ
यह होगा,
उसे
चोट करेगा। यह उसका स्वभाव
है। जैसे सूर्य का स्वभाव है-
वर्चस्व
बनाना,
प्रभावशाली
होना,
मान-सम्मान
बढ़ाना। अगर कुंडली में सूर्य
के साथ राहू विराजमान हों तो
यह सूर्यग्रहण दोष कहलाएगा।
राहू और केतु एक ही शरीर के दो
हिस्से हैं। केतु भी जिस ग्रह
में होगा,
परेशानी
पैदा करेगा।
अब
मान लीजिए राहू कंुडली में
प्रथम स्थान यानी लग्न में
है तो मानिए कि जातक का स्वभाव
उग्र होगा। यहां से सातवां
स्थान पत्नी का होता है,
जहां
केतु की स्थिति तय है। तो यहां
ये महाराज पत्नी को शारीरिक-मानसिक
कष्ट में डालेंगे। अगर राहू
दूसरे घर में यानी धन स्थान
पर है तो निश्चित ही आर्थिक
मोर्चे पर कबाड़ा करेगा। यहां
से सातवां यानी आठवां घर मृत्यु
का होता है,
जहां
केतु अप्राकृतिक मृत्यु की
तरफ धकेलेगा या मृत्यु तुल्य
कष्ट पैदा करेगा। राहू से क्रम
में सातवें घर मंे केतु होंगे
ही।
जब
राहू-केतु
दोनों के बीच सारे ग्रह एक तरफ
आ जाएं तो यह होता है पूर्ण
कालसर्प योग। अगर ऐसा है तो
नोट कीजिए जातक के जीवन में
हद से ज्यादा मुश्किलें आती
रहेंगी,
अकारण
संघर्ष होगा,
काम
बनते-बनते
बिगड़ेंगे। इसे सांप-सीढ़ी
के खेल की तरह समझिए कि आप खूब
संघर्ष के बाद ऊपर पहुंचेंगे
मगर वहां सांप मुंह खोले मिलेंगे
और एक झटके में नीचे ला पटकेंगे।
अब इस दुर्गति और परेशानी की
वजह या बहाना कुछ भी बनेगा।
आपका एक गलत फैसला,
किसी
की एक गलत सलाह। कुछ भी। अगर
संयोग से राहू और केतु के बीच
सारे ग्रह एक तरफ हों लेकिन
कोई एक ग्रह बाहर अपनी जगह
बनाता दिखे तो उसकी डिग्री
राहू के अंश से ज्यादा होनी
चाहिए अन्यथा यह अर्द्ध कालसर्प
योग बनाएगा।
अब
मूल बात। आखिर इस अनुष्ठान
में होता क्या है?
यह
चार घंटे का अनुष्ठान है। सबसे
पहले संकल्प। यह सबसे अहम
हिस्सा है। इसमें जातक अपने
नाम,
गोत्र,
इच्छा
और लक्ष्य को प्रकट करते हैं।
मूल श्लोक संस्कृत में। यह
काम तीन प्रत्यक्ष देवताओं
की साक्षी में होता है। ये
हैं-सूर्य,
अग्नि
और वरुण। श्लोक में कहा जाता
है कि हे देव आप हमारी पूजा के
साक्षी हैं। इनके बाद गणपति
पूजन और कलश का पुण्य वाचन।
आशीर्वाद के एक श्लोक का अर्थ
है-
धन
धान्य,
लक्ष्मी,
विजय,
लाभ,
पुत्र,
पौत्र,
आयु,
आरोग्य,
ऐश्वर्य
और शत्रु पराजय। पुरोहित जब
संस्कृत में श्लोक का उच्चारण
करते हैं तो जातक मन में दोहराते
हैं-मम
ग्रह। अर्थात् मेरे घर में...
दूसरे
श्लोक का अर्थ है-पाप,
रोग,
शोक,
दुख,
दारिद्र,
भय,
पीड़ा
मेरे घर से दूर जाए। बाहर निकले।
तब जातक बोलते हैं-मम
भो ब्राह्मण:
भू
देव:।
यह आशीर्वाद के लिए व्यक्त
किया गया अनुग्रह है। इसके
बाद एक प्रार्थना में व्रत,
नियम,
तप,
स्वाध्याय,
कृतु,
दम,
दया,
दान
के जिक्र हैं। जातक को निर्देश
होते हैं कि वह इस पूजा के बाद
अगले सवा महीने तक अपनी जीवनचर्या
में सात्विक बदलाव लाए। इस
दौरान मदिरा पान,
मांसाहार
से दूर रहें,
कहीं
भी मुफ्त का भोजन न लें। सवा
महीने में ही कालसर्प योग की
शांति के नतीजे अनुभव में आने
लगते हैं।
फिर
सोलह देवियों का पूजन,
राहू
काल सर्प शांति,
नवग्रह
शांति और आरती,
होम-हवन
के साथ पूर्णाहुति। राहू काल
सर्प शांति प्रधान पूजा है।
इसमें नौ नागों की पूजा होती
है। मान्यता है कि नौ ग्रह
कालसर्प योग के कारण नाग रूप
में आ गए हैं। पूजा में राहू-केतु
की प्रतिमाएं और एक सोने का
नाग रखा जाता है। सोने का नाग
इसलिए कि कई ऐसे दोष जो अज्ञात
हैं,
वे
भी विसर्जित हों। आज के बाद
कोई भी अतिरिक्त व्याधि जीवन
में शेष नहीं रहनी चाहिए। इनकी
समस्त शांति के लिए धातुओं
में स्वर्ण प्रथम होने से सोने
का नाग इसके लिए निर्धारित
किया गया। इतना करने के बाद
नवग्रह शांति का आशय इतना है
कि कालसर्प योग में सारे ग्रह
जो नाग रूप में थे,
अब
उन्हें शक्ति प्राप्त होनी
चाहिए।
पूजा
के अंतिम चरण में क्षेत्रपाल
पूजा होती है। राहू राक्षस
प्रवृत्ति के हैं। इसलिए
उन्हें
बलि या कुर्बानी लगती है। भले
ही देवताओं के बीच बैठकर समुद्र
मंथन से निकला अमृत पी लिए
हों। उन्हें यही भोग प्रसन्न
करता है। इसलिए उड़द मांसाहार
के रूप में अर्पित किए जाने
का प्रावधान है। मैंने पहली
ही बार सुना कि उड़द को संस्कृत
में मांस अन्न कहा गया है।
रक्तबीज नाम के राक्षस के रक्त
से जमीन से उड़द की उत्पत्ति
की कोई प्राचीन कथा है। चूंकि
सनातन धर्म में जीव हिंसा
निषेध है लेकिन राहू को बलि
से प्रसन्न भी करना है तो उनके
प्रिय भोग मांस अन्न के रूप
में उड़द पर्याप्त है। अंत
में उस कामना का अर्पण,
जिसके
लिए आप त्रयम्बकेश्वर आए।
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कालसर्प
की शांति त्रयम्बकेश्वर में
ही क्यों?
पंडित
विष्णु और पंडित शिवाकांत
चार भाई हैं। ये दोनों यहीं
हैं। शिवाकांत छोटे हैं मगर
त्रयंबकेश्वर में वे पहले से
हैं। दोनों ही महर्षि महेश
योगी की उन विद्यापीठों से
निकले हैं,
जिनमें
प्रवेश के लिए छपने वाले अखबारी
विज्ञापनों में एक समय मोटे
अक्षरों में छपता था-सिर्फ
ब्राह्मण बालकों के लिए।
दूरदराज गांवों के परंपरावादी
ब्राह्मण परिवारों ने अपने
कुल-कुटुंब
के एक-दो
बच्चों को सालों तक इन विद्यापीठों
में यह सोचकर भेजा कि हमारे
वंश से कोई तो अपने मूल कार्य
में जाए। इसलिए ये बच्चे
स्कूल-कॉलेज
की औपचारिक पढ़ाई से वंचित रहे
मगर ऐसा कुछ हासिल करके निकले
कि आज इनके कारण इनके परिवारों
की प्रतिष्ठा भी है। विष्णु
और शिवाकांत के बड़े भाई मनोज
शास्त्री सबसे पहले अस्सी के
दशक में महर्षिजी के आव्हान
पर वेदों के पाठ्यक्रमों में
शामिल हुए थे। इसे पूरा करने
के बाद वे दो साल के लिए एक
अनुष्ठान में अमेरिका गए।
दूसरी बार फिर दो साल के लिए
उनका चुनाव हुआ। वे गए मगर छह
महीने में ही भारत प्रेम उन्हें
यहां खींच लाया। वे मध्यप्रदेश
में ही हैं।
शिवाकांत
अब तक करीब दस लाख लोगों की
कालसर्प योग की शांति कर चुुके
हैं। इनमें देश भर के हर दल के
छोटे-बड़े
नेता,
अफसर,
एक्टर,
खिलाड़ी
और बड़े कारोबारियों से लेकर
सामान्य किसान,
नौकरीपेशा
और उनके परिजन भी शामिल हैं।
अमावस और पूर्णिमा पर सबसे
ज्यादा लोग होते हैं और नागपंचमी
पर इनकी तादाद हजारों में होती
है,
जो
चार-छह
महीने पहले समय तय करके बेफिक्र
होकर आते हैं। पंडित विष्णु
अपना सीमित समय ही देते हैं
और अब तक देश भर में उनके 30
हजार
कृतज्ञ यजमान हैं,
जो
लगातार उनके संपर्क में रहते
हैं। इतने लोगों के कालसर्प
योग शांति का मतलब है इतनी ही
जन्म कुंडलियों का अध्ययन वे
कर चुके हैं। शिवकांत के यजमानों
में कई प्रवासी भारतीय भी हैं,
जो
दुनिया के कई देशों से हैं।
दोनों
से मेरा एक और सवाल था-कालसर्प
की शांति त्र्यम्बकेश्वर में
ही क्यों?
मैं
उनके सामने सिर्फ अपनी जिज्ञासाएं
लेकर गया था। मेरी कुंडली में
ऐसा कोई योग नहीं है। सारे
ग्रहों की कृपा मुझ पर जन्मजात
है। मेरी अगाध आस्था अपनी
परंपराओं में है। मुझे इन पर
गर्व है। मैं एक ऐसी समृद्ध
संस्कृति का हिस्सा हूं,
जिसे
समय के अनंत विस्तार में मेरे
महान पूर्वजों ने बुद्धि के
सब दरवाजे-खिड़कियां
खोलकर विकसित किया। दोनों
युवा पुरोहितों ने मेरे प्रश्न
पर कहा कि वे इस अनुष्ठान के
पहले अपने सभी यजमानों को इसकी
पृष्ठभूमि जरूर बताते हैं।
उनसे कहते हैं कि वे जो चाहे
प्रश्न पूछें। किसी भी विधि,
सूत्र
या मंत्र को सिर्फ किसी जानकार
के कहने मात्र से विश्वास न
करें। अपनी बुद्धि का प्रयोग
जरूर करें। गहन जिज्ञासु बनें।
प्रश्न करें कि यह क्या है,
क्यों
होता है,
इसका
निवारण देश में यहीं क्यों
बताया गया है?
इसके
पीछे कहानियां क्या हैं?
अनुष्ठान
के असर कैसे अनुभव होते हैं?
मेरे
प्रश्न के उत्तर में कथा समुद्र
मंथन की है,
जो
सबने ही सुनी है। देवताओं और
राक्षसों ने समुद्र मंथन किया।
सबसे पहले विष निकला। इसे
ग्रहण करने की शक्ति किसके
पास थी। शिव ने इसे कंठ में
धारण किया। वे नीलकंठ कहलाए
और इसीलिए देवाें के देव महादेव
भी। फिर महालक्ष्मी निकलीं।
ये विष्णु के हिस्से में आईं।
ऐरावत हाथी को इंद्र ने लिया।
उच्चैश्रेवा नाम का अश्व और
पारिजात नाम का वृक्ष स्वर्ग
गया। इस वृक्ष के नीचे की गई
कोई भी कामना पूर्ण होती है।
इस कड़ी मंे 14
वें
क्रम में अमृत कुंभ निकला।
वह दीपावली की त्रयोदशी यानी
धनतेरस का दिन था। जैसे ही
अमृत कलश आया,
देवताओं
ओर राक्षसों में छीना-झपटी
शुरू हो गई। संघर्ष में पृथ्वी
पर चार स्थानों पर अमृत
छलका-हरिद्वार,
प्रयाग,
उज्जैन
और नासिक। ये चारों ही हर 12
साल
में होने वाले महाकुंभ मेले
के निर्धारित स्थान इसीलिए
बने।
विष्णु
ने देखा कि सारा अमृत संकट
में है। नष्ट हो जाएगा। वे
मोहिनी रूप में सामने आए।
राक्षस और देवताओं ने ऐसी
संुदरी कभी किसी लोक में नहीं
देखी थी। सब तत्काल प्रभाव
से अमृत भूलकर मोहित हो गए।
मोहिनी ने बारी-बारी
से दो दल बनाए। एक पार्टी
राक्षसों की और दूसरी देवताओं
की। राक्षसों के दल को मदिरा
पिलाई। मदिरा भी 14
रत्नों
में से एक थी,
जो
मंथन से निकली थी। अमृत के
धोखे में राक्षस मदिरापान
करते रहे। दूसरी तरफ देवताओं
को मोहिनी रूपी विष्णु ने अमृत
बांटा।
राहू
यह देखकर चकराए कि उनके दल के
राक्षस क्यों झूम रहे हैं।
जबकि देवता अत्यंत आनंदित
हैं। राहू राजा बलि के प्रधान
सेनापति थे। वे देवता के रूप
में आ गए और देवताओं की पंक्ति
में विराजमान हो गए। मोहिनी
ने उन्हें भी अमृत प्रदान
किया। ब्रह्मा ने उन्हें
पहचाना। फौरन विष्णु को रोका।
लेकिन तब तक अमृत पी चुके थे।
क्रोधित मुद्रा में विष्णु
ने सुदर्शन चक्र से राहू का
सिर काट डाला। अमृत पीने से
उनकी मृत्यु नहीं हुई। दोनों
अंग जीवित रहे। धड़ भी और सिर
भी। तब शिव का आगमन होता है।
वे कहते हैं-इसकी
मृत्यु संभव नहीं है। इसके
और टुकड़े करने से कोई लाभ नहीं।
राहू ने कहा-अब
मैं भी अमर हूं। मुझे देवताओं
के तुल्य स्थान दीजिए। मैं
किसी से मरने वाला नहीं।
यह
प्रसंग सतयुग का है,
जो
युग क्रम में पहला है। तब सात
ग्रह थे। सूर्य,
चंद्र,
मंगल,
बुध,
गुरू,
शुक्र
और शनि। राहू के दो हिस्सों
को राहू और केतु के रूप में
ग्रहों के क्रम में स्थान दिया
गया। तब से नौ ग्रह हुए। देवताओं
की संगत में आकर राहू के विचार
बदले। उन्होंने महादेव से
कहा-मैं
मूलत:
राक्षस
हूं। मेरी प्रवृत्ति वही है।
ग्रह रूप में मेरा प्रभाव
मनुष्य के लिए बहुत घातक सिद्ध
होगा। उसके जीवन में संकट का
निमित्त मैं बनूंगा। इसका भी
कुछ उपाय कीजिए। तब शिव ने
कहा-जहां
हम तीनों विराजमान होंगे,
अगर
आपकी शांति यहां होगी तो
नकारात्मक प्रभाव क्षीण होगा।
त्रयम्बकेश्वर के ज्योतिर्लिंग
में तीनों ब्रह्मा,
विष्णु
और महेश विराजमान हैं।
एक
और रोचक कथा इस पवित्र स्थान
का महत्व कई गुना बढ़ा देती है।
यह गौतम ऋषि से जुड़ी कथा है।
यह गौतम ऋषि का तप क्षेत्र रहा
है। उनकी पत्नी का नाम अहिल्या
था। एक सरोवर में वे जल लेने
जाया करती थीं। अहिल्या को
यह अभिमान था कि वे महर्षि
गौतम की पत्नी हैं। सरोवर में
वे पहले जल लेती थीं। दूसरी
ऋषि पत्नियों ने इस भेदभाव
की शिकायत अपने आश्रमों में
की। सब ऋषियों ने योगमाया से
एक गाय उत्पन्न की और गौतम के
आश्रम में छोड़ दिया। गौतम के
स्पर्श से गाय मर गई। गौ हत्या
का दोष महर्षि पर लगा। उस युग
में यह सबसे बड़ा पाप था। संगठित
ऋषियों ने सहयाद्रि क्षेत्र
में उन्हें रहने के योग्य नहीं
पाया। गौतम ने विनम्रता से
कहा-आप
ही इसका निवारण बताएं। ऋषियों
ने कठिन और असंभव सी शर्त
रखी-तीनों
देव यहां आएं और गंगा की उत्पत्ति
हो तभी आप इस पाप से मुक्त हो
सकते हैं।
गौतम
ने घोर तप किया। प्रसन्न होकर
पहले भोलेनाथ ही आए। गौतम की
आंखें भर आईं। बोले-प्रभु
आप अकेले नहीं। मेरे अस्तित्व
का सवाल है। आप तीनों ही साथ
चाहिए। गौतम की तपस्या से
प्रसन्न महादेव ने ब्रह्मा
और विष्णु को भी आमंत्रित
किया। अभी एक और शर्त बाकी थी।
गौतम ने वह भी कह दी-प्रभु,
मेरी
पाप मुक्ति के लिए गंगा भी
प्रकट कीजिए। शिव ने अपनी
जटाओं से बहती गंगा की एक धारा
त्रयंबकेश्वर की पर्वत श्रृंखला
को प्रदान की। यही गोदावरी
का उद्गम है। यहां इसे गौतमी
गंगा भी कहते हैं। महर्षि
गौतम की तपस्या के सम्मान में
ब्रह्म पुराण में एक श्लोक
है,
जिसका
अर्थ है-सारे
तीर्थों का फल,
सारे
तीर्थों का पुण्य,
समस्त
यज्ञों का फल,
सभी
वेदों का ज्ञान गौतम के तट पर
है। त्रेतायुग
में राम अपने वनवास काल में
करीब 11
महीना
पंचवटी में रहे,
जो
नासिक में है। यहीं से सीता
का हरण हुआ और यहीं से उन्होंने
दक्षिण प्रस्थान किया,
जहां
सुग्रीव से उनकी मित्रता होती
है और हनुमान के रूप में एक
समर्पित निष्ठावान शक्तिशाली
और बुद्धिमान भक्त मिलते हैं।
ये
युगों पुरानी गाथाएं हैं।
भारत की सनातन परंपरा में इस
धरती का हर कोना ऐसी गाथाओं
को अपनी अनंत स्मृतियों मंे
समेटे हुए है। अनगिनत ऋषियों
और उनकी पीढ़ियों ने जन्म,
जीवन
और मृत्यु,
सुख
और दुख,
कारण
और परिणाम के चिंतन,
मनन
और शोध में सिंधु से लेकर
गोदावरी तक महान नदियों के
तटों पर अपना जीवन लगाया है।
उनके अनुभव और ज्ञान को उनके
योग्य शिष्यों ने अपनी स्मृतियों
में अगली पीढ़ियों के लिए
सुरक्षित रखा। समय के प्रवाह
में भारत का रंग-रूप
और आकार-प्रकार
बदलता गया। बहुत कुछ मिट गया।
बहुत कुछ बच भी गया। जो कुछ
बचा है,
उसमें
हमारी परंपराएं हैं। हमारी
मान्यताएं हैं। हमारी आस्थाएं
हैं। हम इन्हें मानें या न
मानें,
लज्जित
हों या गर्व महसूस करें,
यह
हम पर निर्भर है। मगर हमें
समझने की कोशिश जरूर करनी
चाहिए। हर रहस्य आपको एक नई
कहानी में ले जाएगा। और हर
कहानी का एक सार तो होता ही
है।
#vijaymanohartiwari